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पास और दूर / अज्ञेय

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{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय; आँगन के पार द्वार / अज्ञेय
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<poem>
जो पास रहे
वे ही तो सबसे दूर रहे :
प्यार से बार-बार
जिन सब ने उठ-उठ हाथ और झुक-झुक कर पैर गहे,
वे ही दयालु, वत्सल स्नेही तो
सब से क्रूर रहे।
जो पास चले गये ठुकरा कर हड्डी-पसली तोड़ गये पर जो मिट्टी उन के पग रोष-भरे खूँदते रहे<br>, फिर अवहेला से रौंद गये : उसको वे ही तो सबसे दूर रहे एक अनजाने नयी खाद दे गाड़ गये :<br>प्यार से बारउसमें ही वे एक अनोखा अंकुर रोप गये। -बार<br>जो चले गये, जो छोड़ गये, जिन सब ने उठ-उठ हाथ और झुकजो जड़े काट, मिट्टी उपाट, चुन-झुक चुन कर पैर गहे, <br>डाल मरोड़ गये वे ही दयालु, वत्सल स्नेही तो <br>नहर खोद कर अनायास सब सागर से क्रूर रहे।<br><br>सागर जोड़ गये मिटा गये अस्तित्व, किन्तु वे जीवन मुझको सौंप गये।
जो चले गये <br>ठुकरा कर हड्डी-पसली तोड़ गये<br>पर जो मिट्टी<br>उन के पग रोष-भरे खूँदते रहे'''देहरादून,<br>फिर अवहेला से रौंद गये :<br>उसको वे ही एक अनजाने नयी खाद दे गाड़ गये :<br>उसमें ही वे एक अनोखा अंकुर रोप गये।<br>-जो चले गये24 अगस्त, जो छोड़ गये, <br>1959'''जो जड़े काट, मिट्टी उपाट, <br>चुन-चुन कर डाल मरोड़ गये<br>वे नहर खोद कर अनायास<br>सागर से सागर जोड़ गये <br>मिटा गये अस्तित्व, <br>किन्तु वे <br>जीवन मुझको सौंप गये।<br><br/poem>
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