लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर'|संग्रह=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"]][[Category:कविताएँ]]}}[[Category:{{KKPageNavigation|पीछे=रश्मिरथी / षष्ठ सर्ग / भाग 13|आगे=रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 2|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"]]}}<poem>रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल, कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल। बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह, उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ अङगार-वृष्टि पा धधक उठे जिस तरह शुष्क कानन का तृण, सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण। यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बद्ध मनुज का वश, हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश।
रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल ,<br>कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल .<br>बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह ,<br>उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह .<br><br>अङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण ,<br>सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण .<br>यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द मनुज का वश ,<br>हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश .<br><br>भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण ,<br>भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !<br>'"रण में क्यों आये आज ?' " लोग मन-ही-मन में पछताते थे ,<br>दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे .<br>थे। <br>काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण .<br>क्षण। सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण .<br>क्षण। अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह ;<br>कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा उमड़ा भुज का सागर अथाह .<br>अथाह। <br>गरजा अशङक अशंक हो कर्ण, ''शल्य “शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं ,<br>कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूं .<br><br>पकड़ता हूं। बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके ,<br>लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके .<br>करके। <br>इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये गये सामने धर्मराज ,<br>टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज .<br>बाज। लेकिन, दोनों का विषम युध्दयु्द्ध, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया ,<br>सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर युधिष्ठिर की मुनि-कल्प, मृदुल काया .<br>काया। <br>भागे वे रण को छोड, क़र्ण ककर्ण ने झपट दौडक़र दौड़कर गहा ग्रीव ,<br>कौतुक से बोला, ''महाराज “महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव .<br>अतीव। हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं .<br>हूं। आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं .<br>हूं। <br>''हैं “हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में ,<br>क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?<br>मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,<br>जाइये, नहीं फिर कभी गरुड क़ी की झपटों से खेला करिये .''<br>करिये।“<br>भाग भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज ,<br>सोचते, 'कहेगा “कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?<br>प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?<br>आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया .'<br>दिया।“<br>समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण ,<br>गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?<br>लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन धर्म का पाल किया,<br>खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया .<br>दिया। <br>कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में ,<br>चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में .<br>में। सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,<br>कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर .<br>पाकर। <br>देखता रहा सब श्लयशल्य, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन ,<br>बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन ,<br>''रे “रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?<br>मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?''<br>”<br>''संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?<br>मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?<br>रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है ,<br>कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है .''<br>है।“<br>हंसकर बोला राधेय, ''शल्य“शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी ,<br>क्षयमान्, क्षनिकक्षणिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी .<br>होगी। इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं ,<br>करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं .<br>हूं। <br>''पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से ,<br>होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से ;<br>यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है ,<br>यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है .<br>है। <br>''सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को ,<br>पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सध्दर्म सद्धर्म निभाने को ,<br>सबके समेत पङिकल पंकिल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?<br>ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?</poem>