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बुलबुल / हरिवंशराय बच्चन

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जगत् कोलाहल में कल्लोल;
दुखो से पागल होकर आज
रही बुलबुल दलों डालों पर बोल ! ५. विभाजित करती मानव जातिधरा पर देशों की दीवार,ज़रा ऊपर तो उठ कर देख,वही जीवन है इस-उस पर; घृणा का देते हैं उपदेश यहाँ धर्मों के ठेकेदार खुला है सबके हित,सब काल हमारी मधुशाला का द्वार,करे आओ विस्मृत के भेद,रहें जो जीवन में विष घोल;क्रांति की जिह्वा बनकर आज,रही बुलबुल डालों पर बोल ! ६. एक क्षण पात-पात में प्रेम,एक क्षण डाल-डाल पर खेल,एक क्षण फूल-फूल से स्नेह,एक क्षण विहग-विहग से मेल; अभी है जिस क्षण का अस्तित्व , दूसरे क्षण बस उसकी याद, याद करने वाला यदि शेष; नहीं क्या संभव क्षण भर बाद उड़ें अज्ञात दिशा की ओर पखेरू प्राणों के पर खोल सजग करती जगती को आज रही बुलबुल डालों पर बोल ! ७. हमारा अमर सुखों का स्वप्न,जगत् का,पर,विपरीत विधान,हमारी इच्छा के प्रतिकूल पड़ा है आ हम पर अनजान; झुका कर इसके आगे शीश नहीं मानव ने मानी हार मिटा सकने में यदि असमर्थ , भुला सकते हम यह संसार;हमारी लाचारी की एक सुरा ही औषध है अनमोल;लिए निज वाणी में विद्रोह रही बुलबुल डालों पर बोल ! ८. जिन्हें जीवन से संतोष,उन्हें क्यूँ भाए इसका गान?जिन्हें जग-जीवन से वैराग्य,उन्हें क्यूँ भाए इसकी तान ? हमें जग-जीवन से अनुराग, हमें जग-जीवन से विद्रोह; हमें क्या समझेंगे वे लोग, जिन्हें सीमा-बंधन का मोह;करे कोई निंदा दिन-रात सुयश का पीटे कोई ढोल,किए कानों को अपने बंद,रही बुलबुल डालों पर बोल !
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