"संबंध रहस्य / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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स्याम यह तुमसौं क्यौं न कहौं । | स्याम यह तुमसौं क्यौं न कहौं । | ||
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जहाँ तहाँ घर घर कौ घैरा, कौनी भाँति सहौं ॥ | जहाँ तहाँ घर घर कौ घैरा, कौनी भाँति सहौं ॥ |
18:42, 9 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण
तुम सौं कहा कहौं सुंदर घन ।
या ब्रज मैं उपहास चलत है, सुनि सुनि स्रवन रहति मनहीं मन ॥
जा दिन सवनि पछारि, नोइ करि, मोहि दुहि नई धेनु बंसीबन ।
तुम गही बाहँ सुभाइ आपनैं हौं चितई हँसि नैकु बदन-तन ।
ता दिन तैं घर मारग जित तित, करत चवाव सकल गोपीजन ।
सूर-स्याम अब साँच पारिहौं, यह पतिब्रत तुमसौं नँद-नंदन ॥1॥
स्याम यह तुमसौं क्यौं न कहौं ।
जहाँ तहाँ घर घर कौ घैरा, कौनी भाँति सहौं ॥
पिता कोपि करवाल गहत कर, बंधु बधन कौं धावै ।
मातु कहै कन्या कौ दुख, जनि बीथिनि जनि आवहु ।
जौ आवहु तौ मुरलि-मधुर-धुनि, मो जनि कान सुनावहु ॥
मन क्रम बचन कहति हौं साँची, मैं मन तुमहिं लगायौ ।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, क्यौ न करौ मन भायौ ॥2॥
हँसि बोले गिरिधर रस-बानी ।
गुरजन खिजैं कतहिं रिस पावति, काहे कौं पछतानी ॥
देह धरे को धर्म यहै , स्वजन कुटुंब गृह -प्रानी ।
कहन देहु, कहि कहा करैंगे, अपनी सुरत हिरानी ?॥
लोक लाज काहै कौ छाँड़ति, ब्रजहीं बसैं भुलानी ।
सूरदास घट द्वै हैं, मन इक, भेद नहीं कछु जानी ॥3॥
ब्रज बसि काके बोल सहौं ।
तुम बिनुस्याम और नहिं जानौ, सकुचि न तुमहिं कहौं ॥
कुल की कानि कहा लै करिहौं तुमकौं कहाँ लहौं ।
धिक माता, धिक पिता बिमुख तुव भावै तहाँ बहौ ॥
कोउ कछु करै, कहै कछु कोऊ, हरष न सोक गहौं ।
सूर स्याम तुमकौं बिनु देखैं, तनु मन जीव दहौं ॥4॥
ब्रजहिं बसैं आपुहिं बिसरायौं ।
प्रकृति पुरुष एकहि करि जानहु, बातनि भेद करायौं ॥
जल थल जहाँ रहौं तुम बिनु नहिं, बेद उपनिषद गायौ ।
द्वै-तन जीव-एक हम दोऊ, सुख-कारन उपजायौ ॥
ब्रह्म-रूप द्वितीया नहिं कोऊ, तब मन तिया जनायौ ।
सूर स्याम-मुख देखि अलप हँसि, आनँद-पुँज बढ़ायौ ॥5॥
तब नागरि मन हरष भई ।
नेह पुरातन जानि स्याम कौ अति आनंद-भई ॥
प्रकृति पुरुष, नारी मैं वै पति, कहैं भूलि गई ।
को माता, को पिता,बंधु को, यह तो भेंट नई ॥
जन्म जन्म, जुग-जुग यह लीला, प्यारी जानि लई ।
सूरदास प्रभु की यह महिमा, यातैं बिबस भई ॥6॥
देह धरे कौ कारन सोई ।
लोक-लाज कुल-कानि न तजियै, जातैं भलौ कहै सब कोई ॥
मातु पिता के डर कौं मानै, मानै सजन कुटुँब सब सोई ।
तात मातु मोहूँ कौं भावत, तन धरि कै माया-बस होई ॥
सुनि बृषभानु-सुता मेरी बानी, प्रीति पुरातन राकहु गोई ।
सूर स्याम नागरिहिं सुनावत, मैं तुम एक नाहि हैं दोई ॥7॥