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वार्ता:नवीन जोशी 'नवेंदु'

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हाथ-पैर== गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ ==
शरीर कुमांऊनी जनकवि के रूप में जान प्रतिष्ठित गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ के काव्य में हमें तत्कालीन पहाडी़ समाज के जीवन से अधिकजरूरी हो गई हैगाड़ियों जुडे़ विविध पक्षों के पहियों दर्शन होते हैं। उत्तराखंड (कुमाऊंनी) के आदि कवियों में हवा!उनकी हवा निकल गई तोएक.समझो मनुष्य की जिन्दगी ही रुक गई।जीवन परिचय : गौरी दत्त पंत "गौर्दा" (1872-1939),
पहले सभी काम-धंधे होते थे हाथ-पैरों सेखेती-बाड़ी में पैदा किया जाता था अनाजगाय-बच्छियों को पाल-पोशकर मिलता था दूध-घीजंगल से लाते थे लकड़ियां ईंधन कोनमक के अतिरिक्त सब कुछ हाथ-पांव ही पैदा करते थे।प्रकाशित पुस्तक: श्री चारुचंद्र पांडे द्वारा संपादित ‘गौर्दा का काव्यदर्शन,’ देशभक्त प्रेस, अल्मोड़ा, 1965.)
आज अनाज पैदा होता है-बनिये जंगल,महिलाओं की दुकान दशा,समाज सुधार से लेकर स्थानीय प्रतिरोध और राष्ट्रीय आन्दोलनों तक सभी विषयों परसब्जी मण्डी ‘गौर्दा‘ ने अपनी लेखनी चलाई।‘गौर्दा‘बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एक कुशल वैद्य के साथ साथ वे गायक, संगीतज्ञ व राम लीला के भी अच्छे कलाकार थे। एक सच्चे समाज सेवी के रुप मेंऔर दूध देती हैं थैलियां।वे पाखण्ड,छूआछूत व पाश्चात्य संस्कृति की नकल को हमेशा चुनौती देते रहते थे।
गाड़ी, गैस, बिजली, पानी, टेलीफोन, कम्प्यूटर केहाथों में आज हमारे हाथ-पैरये रुक गऐफूल जाते हैं हमारे हाथ-पैरआगे न जाने क्या-क्या बनेंगे हमारे हाथ-पैरजिनके बिना 1.इसे छोड़ कहां जाएंगें हमहाथ-पैर होते हुऐ भी लूले लंगड़े हो जाऐंगे।
कुमाऊं हमारा है, हम कुमाऊं के हैं, यहीं हमारी सब खेती बाड़ी है.
तराई, भाबर, वन-वृक्ष, पवनचक्कियां, नदियां, पहाड़, पहाड़ियां
सब हमारी हैं. यहीं हम पैदा हुए, यहीं रहेंगे,
यहीं हमारी नाड़ियां छूटेंगी. यही तो हमारा पितृगृह है,
इसे छोड़ कहां जाएंगें हम. फिर फिर यहीं जन्म लेंगे.
ये थाती हमे प्यारी है. बद्री केदार धाम भी यहीं हैं, कैसी कैसी पुष्प वाटिकाएं हैं,
पांचों प्रयाग और उत्तरकाशी सब हमारे सामने है.
सबसे बड़ा पर्वत हिमालय, जिसके पीछे कैलास है,
यहीं स्थित है. हमारे यहां दही, दूध, घी की बहार रहती थी,
बोरे के बोरे अनाज भरा धरा रहता था, हम ऊंचे में रहे, ऊंचे ही थे.
मूल कुमाउनी कविता `हात खुट´हम कोई भी अनाड़ी नहीं थे. पनघट, गोचर सब अपने थे, उनमें कांटेदार तार नहीं लगा था. इमारती लकड़ी, ईंधन चीड़ की नोकदार सूखी पत्तियां, मशाल के लिए ज्वलनशील चीड़ की लकड़ी या छिलके हम वनों से ले आते थे. घरों में खेत के आगे अखरोट, दाड़िम, नींबू, नारंगी के फल लदे रहते थे. घसियारे और ग्वाले घर घर में भैंसे, गायें, बकरियां पालते थे.
आंग (कुमाऊं का अभिप्राय यहां कुमाऊं कमिश्नरी से है, जिसमें तब समस्त उत्तराखंड शामिल था. कवि कविता में ज्यान कुमाऊं का व्यापक अर्थ में प्रयोग कर रहा है ज्यादेजरूरी हैगेगा्ड़िक घ्वीरों में हा्व!उनरि सांस मुजि ग्येई....समझो मैंसेकि ज्यूनि`ई थमि गे। आज मैंसा्क हात-खुट जै गा्ड़िक घ्वीर बंड़ि ग्येईं।)
पैली सब काम धंध हुंछी हात-खुटोंलखेति-बाड़ि में पैद करी जांछी अनाजगोरु-बा्छ सैन्ति मिलछी दूद-घ्यूबंण बै ल्यूंछी लाका्ड़,नूंण बका्यसब पैद करछी हात-खुटै।मूल कुमाउनी कविता : कां जूंला यैकन छाड़ी
आज अनाज पैद हूं-बंणियैकि दुकान मेंहमरो कुमाऊं, हम छौं कुमइयां, हमरीछ सब खेती बाड़ीसाग मण्डि मेंतराई भाबर वण बोट घट गाड़,हमरा पहाड़ पहाड़ीयांई भयां हम यांई रूंला यांई छुटलिन नाड़ीपितर कुड़ीछ यांई हमारी, कां जूंला यैकन छाड़ीयांई जनम फिरि फिरि ल्यूंला यो थाती हमन लाड़ीबद्री केदारै धामलै येछन, कसि कसि छन फुलवाड़ीपांच प्रयाग उत्तर काशी, सब छन हमरा अध्याड़ीसब है ठूलो हिमाचल यां छ, कैलास जैका पिछाड़ीरूंछिया दै दूद दीं थैलि।घ्यू भरी ठेका, नाज कुथल भरी ठाड़ीऊंचा में रई ऊंचा छियां हम, नी छियां क्वे लै अनाड़ीपनघट गोचर सब छिया आपुण, तार लागी नै पिछाड़ीदार पिरूल पतेल लाकड़ो, ल्यूछियां छिलुकन फाड़ीअखोड़ दाड़िम निमुवां नारिंग, फल रूंछिबाड़ा अघ्याड़ीगोर भैंस बाकरा घर घर सितुकै, पाल छियां ग्वाला घसारी.
गाड़ि, गैस, बिजुलि, पांणि, टेलिफून, कम्प्यूटरा्कहात में छन हमा्र हात-खुटयं रुकि ग्या्या फुलि जानीं हात-खुटअघिल जांणि कि-कि बणांल हात-खुटजना्र बिना हमछन हात-खुटैलुली जूंल।2.गले का हार वंदे मातरम
== हाथ-पैर ==15 अगस्त के मौके पर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘गौर्दा‘ द्वारा लिखी गयी कविता का हिंदी भावानुवाद:
अंग्रेजी हुकूमत की यह सरकार हमारे बन्देमातरम को कभी भी नहीं छीन सकती है। यह बन्देमातरम तो हम गरीबों के गले का हार है। हम तो वही कर रहे हैं जो इस वक्त पर हमें करना चाहिए। आज सारा संसार बन्देमातरम का उद्घोष कर रहा है। दुर्जनों (अंग्रेजी हुकूमत )का मन उस समय जल कर भस्म हो जाता है जब उनके कान में बन्देमातरम की झंकार पड़ जाती है। देशभक्तो !तुम जेल में चक्की पीसते और भूख से मरते समय पर भी इसी बन्देमातरम को प्यार करना।मौत के मुहाने पर खडे़ देशभक्त कह रहे हैं बन्देमातरम की तलवार इनकी छाती में घोंप देंगे। देशभक्तों की नाड़ी देखकर वैद्य भी अब सिर हिलाकर कहने लगे हैं कि इन्हें बन्देमातरम की बीमारी जकड़ चुकी है। इन देशभक्तों के लिये तो यह बन्देमातरम, होली ,दिवाली व ईद के त्यौहार से भी सौ गुना ज्यादा प्यारा हो गया है।
मूल कुमाउनी कविता : गलहार बन्देमातरम्
शरीर में जान से अधिकछीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम्,जरूरी हो गई हैगाड़ियों के पहियों में हवा!उनकी हवा निकल गई तोसमझो मनुश्य की जिन्दगी ही रुक गई।हम गरीबन को छ यो गलहार बन्देमातरम्।
पहले सभी काम-धंधे होते थे हाथ-पैरों सेहम त वी छौं जोकि हुण चैंछ हमन ये बखत पर,खेती-बाड़ी में पैदा किया जाता था अनाजगाय-बच्छियों को पाल-पोशकर मिलता था दूध-घीजंगल से लाते थे लकड़ियां ईंधन कोनमक के अतिरिक्त सब कुछ हाथ-पांव ही पैदा करते थे।आज कूंणा लागि रछ संसार बन्देमातरम्।
आज अनाज पैदा होता है-बनिये की दुकान परदुर्जनन को मन जली भंगार हूं छ वी बखत,सब्जी मण्डी कान मेंऔर दूध देती हैं थैलियां।जब पुजनछ झंकार बन्देमातरम् ।
गाड़ीजेल में चाखा पिसण औ भूख लै मरणा बखत, गैस, बिजली, पानी, टेलीफोन, कम्प्यूटर केहाथों में आज हमारे हाथ-पैरये रुक गऐफूल जाते हैं हमारे हाथ-पैरआगे न जाने क्या-क्या बनेंगे हमारे हाथ-पैरजिनके बिना हमहाथ-पैर होते हुऐ भी लूले लंगड़े हो जाऐंगे।वी बखत लै य कणि करिया प्यार बन्देमातरम्।
मौत का मुख में खडा़ कूणा लागा हत्यार थें,
ठोकि दे ठोठ्याड‐ में तलवार बन्देमातरम्।
मूल कुमाउनी कविता `हात खुट´बैदि लै नाड़ी देखी मुनलै हिलै बेर कै दियो,यो त देषभक्ती को छ बेमार बन्देमातरम्।
आंग में ज्यान होलि दिवाली ईद है ज्यादेलै लाड़िलो छ सौ गुना,जरूरी हैगेगा्ड़िक घ्वीरों में हा्व!उनरि सांस मुजि ग्येई....समझो मैंसेकि ज्यूनि`ई थमि गे। आज मैंसा्क हात-खुट जै गा्ड़िक घ्वीर बंड़ि ग्येईं।मानणे छ एक ही यो त्यार बन्देमातरम्।
पैली सब काम धंध हुंछी हात-खुटोंलखेति-बाड़ि में पैद करी जांछी अनाजगोरु-बा्छ सैन्ति मिलछी दूद-घ्यूबंण बै ल्यूंछी लाका्ड़,नूंण बका्यसब पैद करछी हात-खुटै।छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम।
आज अनाज पैद हूं-बंणियैकि दुकान मेंसाग मण्डि में,दूद दीं थैलि।गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘
कुमांऊनी जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित गौरीदत्त पाण्डे ‘गौर्दा‘ के काव्य में हमें तत्कालीन पहाडी़ समाज के जीवन से जुडे़ विविध पक्षों के दर्शन होते हैं। उत्तराखंड (कुमाऊंनी) के आदि कवियों में एक. जीवन परिचय : गौरी दत्त पंत "गौर्दा" (1872-1939),
गाड़िप्रकाशित पुस्तक: श्री चारुचंद्र पांडे द्वारा संपादित ‘गौर्दा का काव्यदर्शन, गैस’ देशभक्त प्रेस, बिजुलिअल्मोड़ा, पांणि, टेलिफून, कम्प्यूटरा्कहात में छन हमा्र हात-खुटयं रुकि ग्या्या फुलि जानीं हात-खुटअघिल जांणि कि-कि बणांल हात-खुटजना्र बिना हमछन हात-खुटैलुली जूंल।1965.)
== तिनका ==जंगल,महिलाओं की दशा,समाज सुधार से लेकर स्थानीय प्रतिरोध और राष्ट्रीय आन्दोलनों तक सभी विषयों पर ‘गौर्दा‘ ने अपनी लेखनी चलाई।‘गौर्दा‘बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एक कुशल वैद्य के साथ साथ वे गायक, संगीतज्ञ व राम लीला के भी अच्छे कलाकार थे। एक सच्चे समाज सेवी के रुप में वे पाखण्ड,छूआछूत व पाश्चात्य संस्कृति की नकल को हमेशा चुनौती देते रहते थे।
छूने से पहलेसमझ लो इतनामैं सरल-नाजुकखाली ऐसा-वैसादांत से फंसा निकालनेकान को खुजलानेअथवा कौऐ (बेकार की चीजों) को जलाने वाली पतली लकड़ियों जैसानहीं हूं, बिल्कुल नहीं हूं।1.इसे छोड़ कहां जाएंगें हम
मैं सीढ़ी बन कर (एक पौराणिक मान्यता कुमाऊं हमारा है, हम कुमाऊं के अनुसार) तुम्हारे पूर्वजों को स्वर्ग पहुंचा सकता हूं सूण्ड में घुस करहाथी को हैं, यहीं हमारी सब खेती बाड़ी है. तराई, भाबर, वन-वृक्ष, पवनचक्कियां, नदियां, पहाड़, पहाड़ियां सब हमारी हैं. यहीं हम पैदा हुए, यहीं रहेंगे, यहीं हमारी नाड़ियां छूटेंगी. यही तो हमारा पितृगृह है, इसे छोड़ कहां जाएंगें हम. फिर फिर यहीं जन्म लेंगे. ये थाती हमे प्यारी है. बद्री केदार धाम भी मार सकता हूंयहीं हैं, कैसी कैसी पुष्प वाटिकाएं हैं, पांचों प्रयाग और उत्तरकाशी सब हमारे सामने है.
जो कानसबसे बड़ा पर्वत हिमालय, जिसके पीछे कैलास है, सच नहीं सुनते-उन्हें फोड़ सकता हूं।जो आंखेंसबको बराबर नहीं देखतींउन्हें खोंच सकता हूं।दो दंत पंक्तियांअच्छी बातें नहीं बोलतींउन्हें लहूलुहान कर सकता हूं।यहीं स्थित है. हमारे यहां दही, दूध, घी की बहार रहती थी, बोरे के बोरे अनाज भरा धरा रहता था, हम ऊंचे में रहे, ऊंचे ही थे.
फिर तुम क्या हो ?मेरे/सींक के तोड़कर दो हिस्से हम कोई भी अनाड़ी नहीं कर सकते।थे. पनघट, गोचर सब अपने थे, उनमें कांटेदार तार नहीं लगा था. इमारती लकड़ी, ईंधन चीड़ की नोकदार सूखी पत्तियां, मशाल के लिए ज्वलनशील चीड़ की लकड़ी या छिलके हम वनों से ले आते थे. घरों में खेत के आगे अखरोट, दाड़िम, नींबू, नारंगी के फल लदे रहते थे. घसियारे और अगर ग्वाले घर घर में सींकों का गट्ठर जो बन जाऊंगा तो फिर क्या ?भैंसे, गायें, बकरियां पालते थे.
लड़ोगे मुझ (कुमाऊं का अभिप्राय यहां कुमाऊं कमिश्नरी से ?आओ है, जिसमें तब समस्त उत्तराखंड शामिल था. कवि कविता में कुमाऊं का व्यापक अर्थ में प्रयोग कर लो दो-दो हाथपर कह देता हूं इतनामें सरल-नाजुकनहीं....रहा है.मैं हूं सींक/ तिनका।)
मूल कुमाउनी कविता : सिणुंककां जूंला यैकन छाड़ी
ठौक लगूंण हमरो कुमाऊं, हम छौं कुमइयां, हमरीछ सब खेती बाड़ी तराई भाबर वण बोट घट गाड़, हमरा पहाड़ पहाड़ी यांई भयां हम यांई रूंला यांई छुटलिन नाड़ी पितर कुड़ीछ यांई हमारी, कां जूंला यैकन छाड़ी यांई जनम फिरि फिरि ल्यूंला यो थाती हमन लाड़ी बद्री केदारै धामलै येछन, कसि कसि छन फुलवाड़ी पांच प्रयाग उत्तर काशी, सब छन हमरा अध्याड़ी सब है पैलीसमझि लियो इतुकमिं सितिल-पितिल खालि उस-यसदाड़ खचोरणींठूलो हिमाचल यां छ,कान खजूणींकैलास जैका पिछाड़ी रूंछिया दै दूद घ्यू भरी ठेका,कौ भड्यूणीं क्यड़ जसनैं...नाज कुथल भरी ठाड़ी ऊंचा में रई ऊंचा छियां हम, नी छियां क्वे लै अनाड़ी पनघट गोचर सब छिया आपुण, तार लागी नै पिछाड़ी दार पिरूल पतेल लाकड़ो, ल्यूछियां छिलुकन फाड़ी अखोड़ दाड़िम निमुवां नारिंग, फल रूंछिबाड़ा अघ्याड़ी गोर भैंस बाकरा घर घर सितुकै, पाल छियां ग्वाला घसारी.कत्तई नैं।
मिं सिढ़ि बंणि
तुमा्र पुरखन कें
सरग पुजै सकूं,
सूंड में फैटि बेर
हा्थि कें लै फरकै सकूं,
जो कानसांचि न सुंणन-फोड़ि सकूं,जो आं्खबरोबर न द्यखन्-खोचि सकूं,जो दाड़भलि बात त बुलान-ल्वयै सकूं।2.गले का हार वंदे मातरम
फिरि तुमि कि छा ?15 अगस्त के मौके पर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘गौर्दा‘ द्वारा लिखी गयी कविता का हिंदी भावानुवाद:
म्या्र/सिंणुका्क टोड़ि बेर न करि सकना द्वि अंग्रेजी हुकूमत की यह सरकार हमारे बन्देमातरम को कभी भी नहीं छीन सकती है। यह बन्देमातरम तो हम गरीबों के गले का हार है। हम तो वही कर रहे हैं जो इस वक्त पर हमें करना चाहिए। आज सारा संसार बन्देमातरम का उद्घोष कर रहा है। दुर्जनों (अंग्रेजी हुकूमत )का मन उस समय जल कर भस्म हो जाता है जब उनके कान में बन्देमातरम की झंकार पड़ जाती है। देशभक्तो !हौर मिंगढ़व जै बंणि जूंलौ...फिरि तुम जेल में चक्की पीसते और भूख से मरते समय पर भी इसी बन्देमातरम को प्यार करना।मौत के मुहाने पर खडे़ देशभक्त कह रहे हैं बन्देमातरम की तलवार इनकी छाती में घोंप देंगे। देशभक्तों की नाड़ी देखकर वैद्य भी अब सिर हिलाकर कहने लगे हैं कि ?इन्हें बन्देमातरम की बीमारी जकड़ चुकी है। इन देशभक्तों के लिये तो यह बन्देमातरम, होली ,दिवाली व ईद के त्यौहार से भी सौ गुना ज्यादा प्यारा हो गया है।
लड़ला मिं हुं ?आ्ओ, करि ल्हिओ ओ द्वि-द्वि हातपर कै द्यूं इतुकमिं सितिल-पितिलनैं.....मिं छुं सिणुंक।मूल कुमाउनी कविता : गलहार बन्देमातरम्
== पत्थर ==छीनी न सकनी कभै सरकार बन्देमातरम्, हम गरीबन को छ यो गलहार बन्देमातरम्।
हम त वी छौं जोकि हुण चैंछ हमन ये बखत पर, आज कूंणा लागि रछ संसार बन्देमातरम्।
पत्थर जब पथराव में प्रयोग किऐ जाते हैंबड़ी बड़ी बन्दूकें भीउन्हें सलाम ठोकती हैंटेढ़े से टेढ़े लोगों दुर्जनन को भी सिर फोड़कर देते हैं सीधामन जली भंगार हूं छ वी बखत,कहते हैं-न करना बुरे कामन जाना गलत रास्ते।लोग कान में जब-जब रास्ता भटकते हैंपत्थर नुकीले हो जाते हैंचुभते हैं पांवों मेंकर देते हैं खून ही खूनया फिर धकिया देते हैं पहाड़ियों सेपहुंचा देते हैं पाताल।पुजनछ झंकार बन्देमातरम् ।
जेल में चाखा पिसण औ भूख लै मरणा बखत, वी बखत लै य कणि करिया प्यार बन्देमातरम्।
लोग जब अच्छे रास्ते जाते हैंपत्थर देवता बन जाते हैं। कोई ग्वल, कोई गंगनाथ कोई ब्रहमा, बिष्णु, महेश भी नदी मौत का मुख में बहते हुऐनदी के पत्थर बन जाते हैं शिवलिंग सेअच्छी आशीष- जो मांगोखडा़ कूणा लागा हत्यार थें, ठोकि दे देते हैं।ठोठ्याड‐ में तलवार बन्देमातरम्।
बैदि लै नाड़ी देखी मुनलै हिलै बेर कै दियो, यो त देषभक्ती को छ बेमार बन्देमातरम्।
जाने कितने काममसाला पीसनेहोलि दिवाली ईद है लै लाड़िलो छ सौ गुना, धान कूटने, गेहूं पीसनेखेत, मकान, नींचे-ऊपरक्हां नहीं लगते पत्थरआंव-खून लग जाऐ तोघी में छौंक कर चाटे भी जाते हैं पत्थर।मानणे छ एक ही यो त्यार बन्देमातरम्।
 पर आज पत्थरों की कोई कद्र नहींठोकर मारी जा रही उन्हेंकमजोर-बेकार समझते हुऐफेंके-तोड़ेबेहद सस्ते में उपजाऊ खेत, चरागाह खोदकरबेचे जा रहे हैं पत्थर।  कल यही पत्थरबन जाऐंगे `मील के पत्थर´लिखी जाऐंगी इन पर वक्त की कुण्डलियांशिलालेख बन जाऐंगे यहसूंघ-सूंघ कर तलाशे जाऐंगेसजाऐ जाऐंगे संग्रहालयों मेंसैनिक करेंगे इनकी सुरक्षापैंसे लगेंगे इनके दर्शनों के।  पर क्या फायदादिवंगत पूर्वजों पर सर्वस्व न्यौछावर कर भीजब जीवित रहते छीनी की उनकी फिक्रकहीं ऐसा न होतब तक यह घिस-घिस कर हीरेत हो जाऐं, मिट्टी हो जाऐं।  मूल कुमाउनी कविता : ढुंग ढुंग.. जब घन्तर बणनींठुल-ठुल एकना्ली-द्विना्ली लैसिलाम करनीं उनूकैंट्याड़-ट्याड़नैकि कपा्ई फोड़ि करि दिनीं सिदि्द,कूनीं-झन करिया कुकामझन जाया कुबा्ट।मैंस जब-जब भबरीनींढुंग.. है जानीं तिखबुड़नीं खुटों मेंकरि दिनीं ल्वेयोवकि ढ्या्स लागि घुर्ये दिनीं भ्योवपुजै दिनीं पताव। मैंस जब जा्नीं भा्ल बा्टढुंग.. बणि जा्नीं द्याप्तक्वे ग्वल्ल, क्वे गंगनाथक्वे ब्रह्मा, बिश्णु, महेश लैगाड़ में बगि-बगि बेर गंगल्वाड़ बणि जानीं शिवलिंगभलि अशीक दिनींजि मांगौ दि दिनीं। जांणि कतू काममस्याल घैसंण, धान कुटंण, ग्युं पिसंणगा्ड़-कुड़, इचा्ल-कन्हा्वकां न ला्गन ढुंग.औंव खून लागि गयौघ्यू में छौंकि चाटी जानीं ढुड.। पर आज ढुंगैंकि क्ये कदर न्हैलत्यायी, जोत्याई बुसिल-पितिल समझिख्येड़ी-फोड़ीद्वि-द्वि डबल में गा्ड़-स्या्र खंड़िबेची जांणईं ढुंग.। भो यै ढुंग.यं आजा्क बा्टाक रर्वा्ड़बंणि जा्ल `माइलस्टोन´ल्येखी जा्ल इनूं पारिबखता्क कुना्वशिलालेख बंणि जा्ल यंसुंई-सुंई बेर ढुनिछजाई जा्ल संग्रहालयों मेंपहरू द्या्ल इनर पहरडबल लागा्ल इनूकैं द्यखणा्क। पै कि फैदमरी पितर भात खवैजब ज्यून छनैनिकरि इनैरि फिकरखालि मारि लात।यस न हओतब जांलै घ्वेसी-घ्वेसी बेरयं रेत है जा्ल, मटी जा्ल।सकनी कभै सरकार बन्देमातरम।
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