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14:08, 16 जनवरी 2013 के समय का अवतरण
उम्र
पकड़ती है — कमर
फिसलती हुई
खेलती है — पीठ के मैदान में
और धँसा देती है — देह
बुढ़ापा
बैठता है — कंधे पर
पकड़ता है गला
और चेहरे को कसता है
अपने पंजे के भीतर
उम्र का शिकंजा
अपनी रगड़ से चेहरे पर
बनाता है — बुढ़ापे का जाल
खुरचता है यौवन की चमक
और चिपकाता है — झुर्रियों का जाल
जिसमें समेटकर
ले जाती है — मृत्यु
उसे
सबसे बेख़बर लोक में ।