भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चंद शेर / बशीर बद्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(बशीर बद्र साहब के कुछ चुने हुए शेर)
 
(5 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 6 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[बशीर बद्र]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:बशीर बद्र]]
+
|रचनाकार=बशीर बद्र
 
+
}}
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
<poem>
 
+
 
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
 
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
 
 
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये ।
 
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये ।
--
 
  
ज़िन्दगी तूनें मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं  
+
ज़िन्दगी तूने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं  
 
+
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है ।  
पाँव फ़ैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है ।  
+
--
+
  
 
जी बहुत चाहता है सच बोलें
 
जी बहुत चाहता है सच बोलें
 
 
क्या करें हौसला नहीं होता ।  
 
क्या करें हौसला नहीं होता ।  
--
 
  
 
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे  
 
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे  
 
 
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों ।  
 
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों ।  
--
 
  
 
एक दिन तुझ से मिलनें ज़रूर आऊँगा  
 
एक दिन तुझ से मिलनें ज़रूर आऊँगा  
 
 
ज़िन्दगी मुझ को तेरा पता चाहिये ।
 
ज़िन्दगी मुझ को तेरा पता चाहिये ।
--
 
  
 +
 
इतनी मिलती है मेरी गज़लों से सूरत तेरी  
 
इतनी मिलती है मेरी गज़लों से सूरत तेरी  
 
 
लोग तुझ को मेरा महबूब समझते होंगे ।  
 
लोग तुझ को मेरा महबूब समझते होंगे ।  
--
+
 
+
 
वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है  
 
वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है  
 
+
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे ।  
कोई जो दूसरा पहनें तो दूसरा ही लगे ।  
+
--
+
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में  
 
+
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलानें में।  
लोग टूट जाते हैं एक घर बनानें में  
+
 
+
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलानें में।  
+
--
+
 
+
 
पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,  
 
पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,  
 
+
आँखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते ।  
आँखो को अभी ख्वाब छुपानें नहीं आते ।  
+
--
+
 
+
 
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था.  
 
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था.  
 
+
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला ।
फ़िर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला ।  
+
--
+
 
+
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
+
 
+
मगर उस नें मुझे चाहा बहुत है ।
+
--
+
 
+
 
मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ  
 
मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ  
 
+
चुभने लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे ।
चुभनें लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे ।
+
</poem>

19:50, 17 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये ।

ज़िन्दगी तूने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है ।

जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता ।

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों ।

एक दिन तुझ से मिलनें ज़रूर आऊँगा
ज़िन्दगी मुझ को तेरा पता चाहिये ।

 
इतनी मिलती है मेरी गज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझ को मेरा महबूब समझते होंगे ।
 
वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे ।
 
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलानें में।
 
पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आँखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते ।
 
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था.
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला ।
 
मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ
चुभने लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे ।