{{KKCatKavita}}
<poem>
मैं एक चित्रकार के पास गयाजो अपने रंगो क्या इस कविता की पंक्तियों सेइस धुएँ का चित्र बनाकरभाव साफ होकरसमाज के सामनेप्रदर्शनी में रख सकेताकि वह मानव को अपने ही कुकर्मों का रूप दिखा सकेउसे अपनी ही आत्मा काकाला रंग दिखाई दे सके आ सकेगा ।
उस चित्रकार भाव समझ भी लिया यदि मानव ने पूछाबताओ मुझे उन दीवारों को क्या उसे अर्थ दे सकेगाजहां धुएँ का चित्र प्रदर्शन करना हैया फिर उसे मंचो पर सुनाकर देखकर उन दीवारों को मानवता की दुहाई देकरचित्रकार ने कहाचुपचाप उन्हीं गलियों में वापिस जाकरकल यह कमरा प्रदर्शनी के लिएइसी धुएँ में रहने का तैयार आदि तो नहीं हो जाएगासमाज इसका अवलोकन कर सकेगा।
परंतु घंटे बीत गएयदि होगा, पहर बीत गयेदिन पर दिन बीत गये, सालों बीत गयेमगर किसी की हिम्मत क्योंोकि यह भाव नया नहीं हुई देख सकूंहैअपने न ही आत्मा धर्म ग्रन्थों के घिनौने स्वरूप को उपदेशों से ज्यादा मूल्यवान हैजिसे उस चित्रकार ने अपने ही खून यदि समझ सकते हो गहराईधार्मिक उपदेशों के रंग सेदार्शनिकता कीन उठता प्रश्न सपने में भी दिया था स्वरूप उन दीवारों पर इस धुएँ के चित्र को उद्गम का ।
</poem>