"अरबी आयतें और ईशी / पवन कुमार" के अवतरणों में अंतर
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जिनको हमने सोते-जागते | जिनको हमने सोते-जागते |
08:36, 27 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण
दो सौ साठ
रातों के वे तमाम ख़्वाब
जिनको हमने सोते-जागते
उठते-बैठते
ख़यालों में या बेख़याली में देखा था
आज पूरे सात सौ तीस रोज के हो गए हैं
ख़्वाबों को बुनना
और बुनने के बाद
उन्हें पहनना
कितना ख़ुशगवार होता है
आज तुम सात सौ तीस रोज
की हो गयी हो
तुम हंसती हो तो
लगता है
चांद, टुकड़े, टुकड़े होकर
तुम्हारे ‘दांतों’ में तब्दील हो गया है
तुम ‘चॉक’ से ‘स्लेट’ पर
जब आड़ी-तिरछी लाइनें खींचती हो
शायद,
अमरूद
या शायद शेर
या शायद हाथी
या शायद घोड़ा
या ऐसा ही कुछ और
बनाने के लिए
तो बेशक
न वो अमरूद होता है
न शेर, न घोड़ा और न ही हाथी
पर यह महसूस हो जाता है
ताजमहल की दीवारों पर
लिखी तमाम अरबी आयतों की
तरह
जिन्हें मैं पढ़ नहीं पाता
पर देखने में एक
मुकद्दस सा एहसास पाता हूँ
वही एहसास तुम्हारी
इन बेतरतीब-आड़ी-तिरछी
लाइनों में पाता हूँ।
(बेटी ईशिका के नाम)