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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=शिवमंगल सिंह सुमन]][[Category:शिवमंगल सिंह सुमन]]|संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poem>इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे भी क्षण आ जाते हैं[[Category:कविताएँ]]जब हम अपने से ही अपनी बीती कहने लग जाते हैं।
~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~तन खोया-खोया-सा लगता मन उर्वर-सा हो जाता हैकुछ खोया-सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है।
इस जीवन लगता; सुख-दुख की स्‍मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूँयों ही सूने में बैठे ठाले ऐसे भी क्षण आ जाते हैंअंतर के कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ
जब हम अपने से ही कवि की अपनीसीमाऍं है कहता जितना कह पाता हैकितना भी कह डाले, लेकिन-अनकहा अधिक रह जाता है
बीती कहने लग जाते हैं।यों ही चलते-फिरते मन में बेचैनी सी क्‍यों उठती है?बसती बस्‍ती के बीच सदा सपनों की दुनिया लुटती है
जो भी आया था जीवन में यदि चला गया तो रोना क्‍या?
ढलती दुनिया के दानों में सुधियों के तार पिरोना क्‍या?
तन खोयाजीवन में काम हजारों हैं मन रम जाए तो क्‍या कहना!दौड़-खोयाधूप के बीच एक-सा लगताक्षण, थम जाए तो क्‍या कहना!
मन उर्वर-सा हो जाता कुछ खाली खाली होगा ही जिसमें निश्‍वास समाया थाउससे ही सारा झगड़ा हैजिसने विश्‍वास चुराया था
कुछ खोयाफिर भी सूनापन साथ रहा तो गति दूनी करनी होगीसाँचे के तीव्र-सा मिल जाता हैविवर्त्‍तन से मन की पूनी भरनी होगी
कुछ मिला हुआ खो जाता है।  लगता; सुख-दुख की स्‍मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूँ यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ  कवि की अपनी सीमाऍं है कहता जितना कह पाता है कितना भी कह डाले, लेकिन- अनकहा अधिक रह जाता है  यों ही चलते-फिरते मन में बेचैनी सी क्‍यों उठती है? बसती बस्‍ती के बीच सदा सपनों की दुनिया लुटती है  जो भी आया था जीवन में यदि चला गया तो रोना क्‍या? ढलती दुनिया के दानों में सुधियों के तार पिरोना क्‍या?  जीवन में काम हजारों हैं मन रम जाए तो क्‍या कहना! दौड़-धूप के बीच एक- क्षण, थम जाए तो क्‍या कहना!  कुछ खाली खाली होगा ही जिसमें निश्‍वास समाया था उससे ही सारा झगड़ा है जिसने विश्‍वास चुराया था  फिर भी सूनापन साथ रहा तो गति दूनी करनी होगी साँचे के तीव्र-विवर्त्‍तन से मन की पूनी भरनी होगी  जो भी अभाव भरना होगा चलते-चलते भर जाएगा पथ में गुनने बैठूँगा तो जीना दूभर हो जाएगा।
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