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"कबीर दोहावली / पृष्ठ ६" के अवतरणों में अंतर

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जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय । <BR/>
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जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।  
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कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥  
  
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप । <BR/>
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गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।  
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥ <BR/><BR/>
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हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥  
  
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । <BR/>
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यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।  
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥ <BR/><BR/>
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सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥  
  
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय । <BR/>
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बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय ।  
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥ <BR/><BR/>
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कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥  
  
गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग । <BR/>
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गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।  
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥  
  
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर । <BR/>
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गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।  
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥ <BR/><BR/>
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नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥  
  
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला । <BR/>
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कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।  
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥ <BR/><BR/>
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गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥  
  
॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
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॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥  
  
  
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध । <BR/>
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शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध ।  
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥  
  
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय । <BR/>
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हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।  
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥ <BR/><BR/>
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ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥  
  
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक । <BR/>
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ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक ।  
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥ <BR/><BR/>
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जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥  
  
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय । <BR/>
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शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय ।  
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥ <BR/><BR/>
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कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥  
  
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय । <BR/>
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स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।  
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥ <BR/><BR/>
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चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥  
  
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि । <BR/>
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गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।  
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥ <BR/><BR/>
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बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥  
  
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय । <BR/>
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सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय ।  
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥ <BR/><BR/>
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जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥  
  
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल । <BR/>
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देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।  
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥ <BR/><BR/>
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जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥  
  
भिक्ति के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
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भक्ति के विषय में दोहे ॥  
  
  
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय । <BR/>
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कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।  
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥ <BR/><BR/>
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माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥  
  
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय । <BR/>
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कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।  
गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥ <BR/><BR/>
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गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥  
  
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात । <BR/>
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जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।  
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥ <BR/><BR/>
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सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥  
  
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं । <BR/>
+
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।  
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥ <BR/><BR/>
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तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥  
  
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह । <BR/>
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हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।  
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥ <BR/><BR/>
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सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥  
  
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह । <BR/>
+
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।  
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥ <BR/><BR/>
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माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥  
  
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार । <BR/>
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कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।  
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥ <BR/><BR/>
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सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥  
  
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय । <BR/>
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कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।  
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥ <BR/><BR/>
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बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥  
  
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज । <BR/>
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पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।  
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥ <BR/><BR/>
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ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥  
  
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार । <BR/>
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कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।  
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥  
  
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग । <BR/>
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साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।  
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥ <BR/><BR/>
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ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥  
  
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार । <BR/>
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शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।  
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥ <BR/><BR/>
+
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥  
  
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय । <BR/>
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कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।  
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥ <BR/><BR/>
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बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥  
  
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय । <BR/>
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साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।  
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥ <BR/><BR/>
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जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥  
  
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय । <BR/>
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साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।  
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥ <BR/><BR/>
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दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥  
  
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय । <BR/>
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कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।  
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥ <BR/><BR/>
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एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥  
  
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ । <BR/>
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संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।  
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥ <BR/><BR/>
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कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥  
  
साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान । <BR/>
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साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।  
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥ <BR/><BR/>
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ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥  
  
टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि । <BR/>
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टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।  
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥ <BR/><BR/>
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टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥  
  
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है । <BR/>
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साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।  
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥ <BR/><BR/>
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कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥  
  
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार । <BR/>
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निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार ।  
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥ <BR/><BR/>
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देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥  
  
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो । <BR/>
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हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।  
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥ <BR/><BR/>
+
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥  
  
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय । <BR/>
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खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।  
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥ <BR/><BR/>
+
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥  
  
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास । <BR/>
+
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।  
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥ <BR/><BR/>
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वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥  
  
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल । <BR/>
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आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।  
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥ <BR/><BR/>
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साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥  
  
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय । <BR/>
+
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।  
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥ <BR/><BR/>
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जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥  
  
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय । <BR/>
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कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।  
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥ <BR/><BR/>
+
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥  
  
कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि । <BR/>
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कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।  
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥ <BR/><BR/>
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ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥  
  
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय । <BR/>
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कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।  
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥ <BR/><BR/>
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कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥  
  
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय । <BR/>
+
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।  
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥ <BR/><BR/>
+
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥  
  
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय । <BR/>
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तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।  
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥ <BR/><BR/>
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यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥  
  
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार । <BR/>
+
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार ।  
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥ <BR/><BR/>
+
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥  
  
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय । <BR/>
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बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।  
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥  
  
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय । <BR/>
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पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।  
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥ <BR/><BR/>
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यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥  
  
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष । <BR/>
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बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।  
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥ <BR/><BR/>
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कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥  
  
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय । <BR/>
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छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।  
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥ <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥  
  
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त । <BR/>
+
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।  
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥ <BR/><BR/>
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यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥  
  
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि । <BR/>
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मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।  
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥ <BR/><BR/>
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साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥  
  
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान । <BR/>
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साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।  
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥  
  
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय । <BR/>
+
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।  
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥ <BR/><BR/>
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कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥  
  
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय । <BR/>
+
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।  
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥ <BR/><BR/>
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कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥  
  
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि । <BR/>
+
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।  
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥ <BR/><BR/>
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कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥  
  
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय । <BR/>
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कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।  
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥ <BR/><BR/>
+
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥  
  
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर । <BR/>
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टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।  
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥ <BR/><BR/>
+
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥  
  
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि । <BR/>
+
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।  
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥ <BR/><BR/>
+
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥  
  
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह । <BR/>
+
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।  
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥ <BR/><BR/>
+
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥  
  
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय । <BR/>
+
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।  
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥ <BR/><BR/>
+
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥  
  
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन । <BR/>
+
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।  
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥ <BR/><BR/>
+
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥  
  
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर । <BR/>
+
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।  
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥ <BR/><BR/>
+
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥  
  
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट । <BR/>
+
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।  
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥ <BR/><BR/>
+
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥  
  
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार । <BR/>
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साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।  
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥ <BR/><BR/>
+
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥  
  
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग । <BR/>
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साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।  
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥ <BR/><BR/>
+
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥  
  
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय । <BR/>
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आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।  
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥ <BR/><BR/>
+
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥  
  
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय । <BR/>
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छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।  
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥ <BR/><BR/>
+
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥  
  
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह । <BR/>
+
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।  
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥ <BR/><BR/>
+
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥  
  
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर । <BR/>
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बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।  
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥ <BR/><BR/>
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परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥  
  
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध । <BR/>
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सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।  
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥ <BR/><BR/>
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साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव । <BR/>
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चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥ <BR/><BR/>
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कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल । <BR/>
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कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥ <BR/><BR/>
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हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि । <BR/>
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तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥ <BR/><BR/>
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क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान । <BR/>
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कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय । <BR/>
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जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥ <BR/><BR/>
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गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥ <BR/><BR/>
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शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥ <BR/><BR/>
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साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं । <BR/>
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साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।  
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥ <BR/><BR/>
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साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार । <BR/>
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डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥ <BR/><BR/>
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साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । <BR/>
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साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।  
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥ <BR/><BR/>
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साधु चाल जु चालई, साधु की चाल । <BR/>
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बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥ <BR/><BR/>
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साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल । <BR/>
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परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥ <BR/><BR/>
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साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास । <BR/>
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साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।  
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥ <BR/><BR/>
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साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि । <BR/>
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अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥ <BR/><BR/>
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माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591  
 
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साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत । <BR/>
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कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ <BR/><BR/>
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साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ । <BR/>
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सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥ <BR/><BR/>
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सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥  
  
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय । <BR/>
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न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥ <BR/><BR/>
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साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर । <BR/>
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शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥ <BR/><BR/>
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सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार । <BR/>
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आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥ <BR/><BR/>
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दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप । <BR/>
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दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।  
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥ <BR/><BR/>
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सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय । <BR/>
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छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥ <BR/><BR/>
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छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥  
  
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक । <BR/>
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साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।  
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥ <BR/><BR/>
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सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात । <BR/>
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सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।  
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥ <BR/><BR/>
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निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥  
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09:54, 13 जून 2013 के समय का अवतरण

जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥

गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥

यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥

बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय ।
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥

गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥

गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥

कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥

॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥


शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥

हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥

ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक ।
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥

शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय ।
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥

स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥

गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥

सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय ।
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥

देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥

॥ भक्ति के विषय में दोहे ॥


कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥

कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।
गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥

जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥

चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥

हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥

झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥

कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥

कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥

पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥

कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥

साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥

शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥

कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥

साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥

साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥

कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥

संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥

साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥

टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥

साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥

निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार ।
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥

हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥

खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥

घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥

आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥

कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥

कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥

कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥

कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥

दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥

तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥

दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार ।
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥

बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥

पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥

बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥

छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥

मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥

मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥

साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥

इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥

खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥

सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥

कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥

टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥

कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥

साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥

साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥

साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥

साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥

साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥

साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥

साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥

आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥

छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥

सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥

बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥

सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥

साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव ।
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥

कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल ।
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥

हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि ।
तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥

क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान ।
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥

जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप ।
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥

साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड ।
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥

कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय ।
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥ 579 ॥

आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद ।
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥

कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥

वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥

सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥

साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥

साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥

साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥

साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥

साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥

साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥

साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥

साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591

साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥

साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥

साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥

साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥

सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥

दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥

सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥

साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥

सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥
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