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आमुख / प्रतिभा सक्सेना

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दण्डकारण्य में गृत्समद् नामक ब्राह्मण, लक्ष्मी को पुत्री-रूप में पाने की कामना से, प्रतिदिन एक कलश में कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूँदें डालता था (देवों और असुरों की प्रतिद्वंद्विता शत्रुता में परिणत हो चुकी थी। वे एक दूसरे से आशंकित और भयभीत रहते थे। उत्तरी भारत में देव-संस्कृति का प्रचलन था। ऋषि-मुनि असुरों के विनाश हेतु राजाओं को प्रेरित करते थे और यज्ञ आदि आयोजनो में एकत्र होकर अपनी संस्कृति के विरोधियों को शक्तिहीन करने के उपाय खोजते थे। ऋषियों के आयोजनों की भनक उनके प्रतिद्वंद्वियों के कानों में पडती रहती थी, परिणामस्वरूप पारस्परिक विद्वेष और बढ जाता था) एक दिन उसकी अनुपस्थिति में रावण वहाँ पहुँचा और ऋषियों को तेजहत करने के लिये उन्हें घायल कर उनका रक्त उसी कलश में एकत्र कर लंका ले गया। कलश को उसने मंदोदरी के संरक्षण में दे दिया- यह कह कर कि यह तीक्ष्ण विष है, सावधानी से रखे।
कुछ समय पश्चात् रावण उन्मुक्त विहार करने सह्याद्रि पर्वत पर चला गया। रावण की उपेक्षा से खिन्न होकर मन्दोदरी ने मृत्यु के वरण हेतु उस कलश का पदार्थ पी लिया। लक्ष्मी के आधार-भूत दूध से मिश्रित होने के कारण उसका प्रभाव पडा। मन्दोदरी में गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे। अनिष्ठ की आशंकाओं से भीत मंदोदरी ने, कुरुक्षेत्र जाकर उस भ्रूण को धरती में गाड़ दिया और सरस्वती नदी में स्नान कर चली आई।
हिन्दी के प्रथम थिसारस(अरविन्द कुमार और कुसुम कुमार द्वारा रचित) में भी सीता को रावण की पुत्री के रूप में मान्यता मिली है।
अद्भुतरामायण में सीता को सर्वोपरि शक्ति बताया गया है, जिसके बिना राम कुछ करने मं् में असमर्थ हैं। दो अन्य प्रसंग भी इसी की पुष्टि करते हैं-
(1) रावण-वध के बाद जब चारों दिशाओं से ऋषिगण राम का अभिनन्दन करने आये तो उनकी प्रशंसा करते हुये कहा, ‘सीतादेवी ने महान् दुख प्राप्त किया है यही स्मरण कर हमारा चित्त उद्वेलित है’। सीता हँस पडीं बोलीं, "हे मुनियों, आपने रावण-वध के प्रति जो कहा वह प्रशंसा, परिहास कहलाती है। किन्तु उसका वध कुछ प्रशंसा के योग्य नही"। इसके पश्चात् सीता ने सहस्रमुख-रावण का वृत्तान्त सुनाया। अपने शौर्य को प्रमाणित करने के लिये, राम अपने सहयोगियों और सीता सहित पुष्पक में बैठ कर उसे जीतने चले।
सहस्रमुख ने वायव्य-बाण से राम-सीता के अतिरिक्त अन्य सब को उन्हीं के स्थान पर पहुँचा दिया। राम के साथ उसका भीषण युद्ध हुआ और राम घायल होकर अचेत हो गये। तब सीता ने विकटरूप धर कर अट्टहास करते हुये निमिष-मात्र में उसके सहस्र सिर काट कर उसका अंत कर दिया। सीता अत्यन्त कुपित थीं, हा-हाकार मच गया। ब्रह्मा ने राम का स्पर्श कर उन्हें स्मृति कराई। वे उठ बैठे। युद्ध-क्षेत्र में नर्तित प्रयंकरी महाकाली को देख वे कंपित हो उठे। ब्रह्मा ने स्पष्ट किया कि राम, सीता के बिना कुछ भी करने में असमर्थ हैं।
राम ने सहस्र-नाम से उनकी स्तुति की, जानकी ने सौम्य रूप धारण किया: राम के माँगे हुये दो वर प्रदान किये और अंत में बोलीं, “इस 'इस रूप में से मानस के उत्तर भाग में निवास करूँगी’। राम की प्रशंसा पर सीता के हँसने का प्रसंग भिन्न रूपों में वर्णित हुआ है। उड़िया भाषा की 'विलंका रामायण' में सहस्रशिरा के वध के लिये, देवताओं ने खल और दुर्बल का सहयोग लेकर सीता और राम के कण्ठों में निवास करने को कहा था(विलंका रामायण (पृ 52, छन्द 2240)
(2) आनन्द रामायण (राज्यकाण्ड, पूर्वार्द्ध, अध्याय 5-6)विभीषण अपनी पत्नी और मंत्रियों के साथ दौडते हुये राम की सभा में आते हैं और बताते हैं कि कुंभकर्ण के मूल-नक्षत्र में उत्पन्न हुए पुत्र (जिसे वन में छोड़ दिया गया था) मूलकासुर ने लंका पर धावा बोला है और वह भेदिये विभीषण और उसके पिता का घात करने वाले राम को भी मार डालेगा।
राम अगर सीता द्वारा अग्नि-परीक्षा दी जाने की बात बता देते तो सारी प्रजा निस्संशय होकर स्वीकार कर लेती, उसी प्रकार जैसे राम के पुत्रों को सहज ही स्वीकार कर लिया था।
सीता की अग्नि-परीक्षा लेने और वरुण,यम, इन्द्र, ब्रह्मा और स्वयं अपने पिता राजा दशरथ के प्रकट होकर राम को आश्वस्त करने के बाद भी, वे प्रजाजनों के सम्मुख सत्य को क्यों नही प्रस्तुत कर पाते? राजा दशरथ तो स्वयं खिन्न हैं। वे सीता को पुत्री कह कर सम्बोधित करते हैं और कहते हैं कि वह इस व्यवहार के लिये राम पर कुपित न हो। राजा दशरथ को पता नहीं होगा कि एक बार नहीं बार-बार सीता को इस स्थिति से गुजरना होगा। विशाल जन-समूह को आमंत्रित कर युवा पुत्रों की माता के सतीत्व की पुनः परीक्षा करने को तैयार हैं राम। ऐसी लज्जाजनक स्थिति में स्वाभिमानी माँ वही कर सकती है जो सीता ने किया। सीता की निर्दोषिता को राम अच्छी तरह जानते थे, ऐसी स्थिति में पति ही अपनी पत्नी का साथ न देकर निन्दा के भय से उसका परित्याग कर दे तो क्या यह न्याय और धर्म की दृष्टि से उचित है? जनता को सत्य बता कर उचित व्यवहार करने से यह गलत सन्देश लोक को न मिलता कि पत्नी पर पति का अबाध अधिकार है और पत्नी का कर्तव्य है, मौन रह कर हर आज्ञा का पालन। एक बार सीता के सामने आकर राम अपनी स्थिति तो स्पष्ट कर ही सकते थे। सीता को लेकर स्वयं वन भी जा सकते थे, राज्य को सँभालने के लिये तीनो भाई थे ही, संतान उत्पन्न होने तक ही साथ दे देते!
पति-पत्नी के संबंध की आधार- शिला पारस्परिक विश्वास है लेकिन राम सदा परीक्षा, प्रमाण और शपथ दिलाते रहे, और विपदा से जूझने के लिये सीता को अकेला छोड़ दिया गया। चरम सीमा तब आ गई जब उन्होने देश-देश के राजाओं, मुनियों और समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये घोषणा करवा दी कि जिसे सीता का शपथ लेना देखना हो उपस्थित हो। उस विशाल जन-समूह के सामने सीता को वाल्मीकि द्वारा आश्रम से बुलवाकर उपस्थित किया जाता है(वाल्मीकि रमायण)। दो युवा पुत्रों की वयोवृद्ध माता, जिसका परित्यक्त जीवन, वन में पुत्रों को जन्म देकर समर्थ और योग्य बनाने की तपस्या में बीता हो, ऐसी स्थिति में डाले जाने पर धरती में ही तो समा जाना चाहेगी। वाल्मीकि ने नारी मनोविज्ञान का सुन्दर निर्वाह किया है। लाँछिता नारी के पति की मानसिकता धारण किये राम द्वारा बार-बार समाज के सामने किये जानेवाले मिथ्या आरोंपों का, दुर्वचनों का, शंकाओं का और कुतर्कों का कोई उत्तर नहीं होता। इस व्यवहार के द्वारा भारतीय संस्कृति के कौन से मान स्थापित कर गये हैं राम?
समय की गति के साथ अब साध्वी सीता सच्चे अर्थों में वैदेही (द्ह बुद्धि से अतीत) बन गई है('वाल्मीकि' पृ 50)।
अयोध्या काण्ड के बीसवें सर्ग में कौशल्या की स्थिति भी इसी प्रकार चित्रित की गई है। जब पुत्र को वनवास दे दिया गया है, वे चुप नहीं रह पातीं, कहती हैं, 'पति की ओर से भी मुझे अत्यंत तिरस्कार और कडी फटकार ही मिली है। मैं कैकेयी की दासियों के बराबर या उससे भी गई-बाती समझी जाती हूँ। पति के शासन-काल में एक ज्येष्ठ पत्नी को जो कल्याण या सुख मिलना चाहिये वह मुझे कभी नहीं मिला’।
वन-गमन के लिये जब राम अपनी माताओं से बिदा लेने जाते हैं तब रनिवास में दशरथ की 350 और पत्नियाँ हैं(वाल्मीकि रामायण,अयोध्या काण्ड 39 सर्ग)।
शूर्पनखा के साथ उनका जो व्यवहार रहा उसे नीति की दृष्टि से शोभनीय नहीं कहा जा सकता। कालकेयों से युद्ध करते समय रावण ने प्रमादवश अपनी बहिन शूर्पनखा के पति विद्युतजिह्व का भी वध कर दिया था। जब बहिन ने उसे भला-बुरा कहा तो पश्चाताप करते हुये रावण ने उसे संतुष्ट करने को दण्डकारण्य का शासन उसे देकर खर और दूषण को उसकी आज्ञा में रहने के लिये नियुक्त कर दिया(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड,24 सर्ग)। अपने क्षेत्र में दो शोभन पुरुषों को देख को उसने उनसे प्रणय निवेदन किया। उसका यह आचरण रक्ष संस्कृति के अनुसार अनुचित नहीं था पर जिस संस्कृति और वातावरण में राम पले थे उसमें एक युवती का स्वयं आगे बढ कर प्रेम-निवेदन करना उनके गले से उतरना मुश्किल था। उसके कथन को गंभीरता से न लेकर उन्होने उसे अपने विनोद का साधन बना लिया। उपहास करते हुये वे मजा लेते हैं। एक दूसरे के पास भेजते हुये राम और लक्ष्मण जिस प्रकार उसकी हँसी उड़ाते हैं और उसके कुपित होने पर उससे अपशब्द कहते हैं, वह क्रोधित हो उठती हैऔर है और राम के संकेत पर लक्षमण उसके नाक-कान काट लेते हैं। पर यह परिहास उन्हें बहुत मँहगा पडता है।
इलपा वुलूरि पाण्डुरंग राव का कथन है, 'शूर्पनखा में भी गरिमा और गौरव का अभाव नहीं है। कमी उसमें केवल यही है कि राम और लक्ष्मण के परिहास को सही परिप्रेक्ष्य में वह समझ नहीं पाती। बिचारी महिला दोनो राजकुमारों में से कम से कम एक को अपना बनाने का दयनीय प्रयास करते हुये कभी उधर और कभी इधर जाकर हास्यास्पद बन जाती है। अंततः सारा काण्ड उसकी अवमानना में परिणत हो जाता है(‘वाल्मीकि' पृष्ठ 75’)। भारतीय काव्य-शास्त्र में शृंगार रस की पूर्णता तब होती है जब कामना नारी की ओर से व्यक्त हो।
रावण के अंतःपुर के विलासमय वातावरण से पृथक एकान्त में बिछी हुई शैया पर मन्दोदरी के कान्तिमय रूप और आभा को देख कर, हनुमान उन्हें भ्रमवश सीता समझ बैठे थे। आदि कवि ने किसी अभिप्राय से ही यह कथन किया है। उन्होने राम से कहा था, 'सीता जो स्वयं रावण को नहीं मार डालती हैं इससे जान पडता है कि दशमुख रावण महात्मा है, तपोबल से संपन्न होने के कारण शाप के अयोग्य है। रावण को रूप यौवन से संपन्न बताते हुये वाल्मीकि ने उसके तेज से तिरस्कृत होकर हनुमान को पत्तों में छिपते हुये बताया है।
उत्तर काण्ड में ब्रह्मा के द्वारा इन्द्र को प्रथम जार कर्ता बताया गया है (अहिल्या के साथ दुराचार के प्रकरण में) और जार कर्म का प्रवर्तक होने के कारण वह अभिशप्त है कि आगे ऐसे पाप का आधा भाग करनेवाले को और आधा पाप इन्द्र को लगेगा। दुराचारी का पाप आधा रह गया पर उसका शिकार बनी नारी के लिये सहानुभूति और न्याय देने का विचार कहीं नहीं है।
मन्दोदरी की बड़ी बहिन का नाम माया था। अमेरिका की 'मायन कल्चर' का मय दानव और उसकी पुत्री माया से संबद्धता रक्ष संस्कृति और मय संस्कृति के अदुभुत साम्य को देख कर कल्पित की गई है। उत्तरी अमेरिका और मैक्सिको की 'मय संस्कृति' की नगर व्यवस्था, प्रतीक-चिह्न, वेश-भूषा आदि लंका के वर्णन से बहुत मेल खाते है। मय दानव ने ही लंका पुरी का निर्माण किया था। उनकी जीवन- पद्धति और मान्यताओं में भी काफी-कुछ समानतायें है। रक्ष ही नहीं उसका स्वरूप भारतीय संस्कृति से भी साम्य रखता है। यही संभाव्य कल्पना 'माया पुरी' प्रकरण में रूपायित हुई है। मीलों ऊँचे कगारों के बीच बहती कलऋता (कोलरेडो) नदी और ग्रैण्ड केनियन की दृष्यावली इस धरती की वास्तविकतायें हैं।
प्राकृत के राम-काव्य 'पउम चरिय' और संस्कृत के 'पद्मचरितम्' में शूर्पनखा का नाम चंद्रनखा है। इन काव्यों में भी लोकापवाद के भय से राम सीता को त्याग देते हैं। सीता के पुत्रों को युवा होने के पश्चात् परित्याग की घटना सुन कर क्रोध आता है, वे राम पर आक्रमण करते हैं। राम ने अपने जीवन काल में ही चारों भाइयों के आठों पुत्रों को पृथक्-पृथक् राज्यों का स्वामी बना दिया था। लक्ष्मण ने राम और समस्त परिजनों को दुर्वासा के शाप से बचाने के लिये स्वयं को दाँव पर लगा दिया। आज्ञा- भंग का अपराध स्वयं स्वीकार कर लक्षमण ने जल-समाधि ली थी।
सेतु- बन्ध का कार्य निर्विघ्न संपन्न हो इस लिये राम ने सागर तट पर यज्ञ कर शिव की स्थापना का संकल्प किया। उस समय विपन्न और पत्नी-वंचित राम का अनुष्ठान पूर्ण करवाने, रावण सीता को लाकर स्वयं उमका पुरोहित बना था। कार्य पूर्ण होने पर वह सीता को वापस ले गया। ये सारे प्रसंग सुविदित हैं। कदम्बिनी के ‘मई 2002’ के अंक में भी इस प्रसंग का उल्लेख है।
सीता का जो रूप बाद में अंकित किया गया, वह इन प्रसंगों से बिल्कुल मेल नहीं खाता। किसी भी रचनाकार ने उन्हे रावण की पुत्री स्वीकार नहीं किया। कारण शायद यह हो कि इससे राम के चरित्र को आघात पहुँचता। नायक की चरित्र-रक्षा के लिये घटनाओं में फेर-बदल करने से ले कर शापों, विस्मरणों, तथा अन्य असंभाव्य कल्पनाओं का क्रम चल निकला। उसका इतना महिमा-मंडन कि वह अलौकिक लगने लगे और और प्रति नायक का घोर निकृष्ट अंकन। अतिरंजना, चमत्कारों और अति आदर्शों के समावेश ने मानव को देवता बना डाला और भक्ति के आवेश ने कुछ सोचने-विचारने की आवश्यता समाप्त कर दी।
जो इस संसार में मानव योनि में जन्मा उस पर प्रारंभ से ही परम पुण्यात्मा अथवा निकृष्ट अथवा पापी होने का ठप्पा लगा कर उसके हर कार्य को उसी चश्मे से देखना और व्यक्ति के एक-एक कार्य का औचित्य या अनौचित्य सिद्ध कर उसे महिमा मण्डित करने या निन्दा का पात्र बनाने से अच्छा यह है कि पूरे जीवन के कार्यों का लेखा-जोखा करने के पश्चात ही किसी निर्णय पर पहुँचा जाये। कभी-कभी परम यशस्वी जीवन जीने वाले मनुष्य भी ऐसी भूल कर बैठते हैं कि उनकी सारी उपलब्धियों पर पानी फिर जाता है और कभी जीवन भर गुमनाम या बदनाम व्यक्ति भी अपने किसी विलक्षण कार्य द्वारा यश के ऐसे शिखर पर पहुँच जाता है कि उसकी सारी कालिमा धुल जाती है। व्यक्ति का जीवन चेतना की अविरल धारा है उसका मूल्यांकन भी उसी समग्रता में होना चाहिये।
श्री इलयावुलूरि राव ने अपने 'संदेश' शीर्षक अन्तिम अध्याय में एक बात बहुत पते की कही है। यह विडंबना की बात है कि सारा संसार सीता और राम को आदर्श दंपति मान कर उनकी पूजा करता है, किन्तु उनका जैसा दाम्पत्य किसी को भी स्वीकार नहीं होगा। इसमें एक बात और जोड़ी जा सकती है कि राम जैसा पिता पाने को भी कोई पुत्र शायद ही तैयार हो और वधू एवं पौत्र-विहीना कौशल्या जैसी वृद्धावस्था की कामना भी कोई माता नहीं करेगी। पवित्रता का आधार केवल पार्थिव शरीर हो इस पर वाल्मीकि की सीता ने कहा था, 'मुझे यह देख कर बड़ा दुख हो रहा है कि आपको मेरे भीतर मात्र एक स्त्री(देह) दिखाई दे रही है, अपनी पति परायण पत्नी नहीं। हमारे पवित्र वैवाहिक संबंध की सारी बातें आप भूल गये और मेरी श्रद्धा और निष्ठा को भी आपने भुला दिया। राम इसका कोई उत्तर नहीं दे पाये थे। क्या कोई नारी कामना करेगी कि ऐसी विषम स्थिति में पड़ने पर उसका पति इसी प्रकार का व्यवहार करे?
वाल्मीकि और उनके परवर्ती राम-कथा के रचनाकारों की दृष्टि और सृष्टि में पर्याप्त अंतर है। वाल्मीकि ने कहीं नहीं लिखा कि अहिल्या पत्थर बन कर पड़ी रही और राम ने उसे असने पैरों से छुआ। वहाँ गौतम ऋषि का शाप केवल इतना है कि राम के दर्शन होने तक वह बाह्य संसार के लिये अगोचर रहेगी। इसी प्रकार पंचवटी में लक्षमण ने सीता के वचन सुनकर जाते समय कोई रेखा नहीं खींची जो सीता को आगे बढने से निवारित करे। लेकिन समय के साथ वह रेखा ऐसी खिंची कि अब उसे मिटाना मुश्किल है। वाल्मीकि के रावण ने सीता का हरण उनके केश पकड कर और उन्हे अपनी बाहों में उठाकर किया है लेकिन परवर्ती राम-काव्य के रचयिताओं को यह नागवार लगा, उन्होंने इसके लिये नई उद्भावनायें कीं। अग्नि-परीक्षा के पूर्व कहे गये राम के कटु वचन भी वे बचा गये और रावण -वध का रूप भी परिवर्तित कर दिया गया।
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