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"रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 2" के अवतरणों में अंतर

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फिर कभी न हेरा तुझको जिस संशय से,
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उस जड़ समाज के सिर पर कदम धरूँगी,
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‘‘थी चाह पंक मन को प्रक्षालित कर लूँ,
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वह समय आज रण के मिस से आया है,
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22:55, 7 जुलाई 2013 का अवतरण

आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने खोला, कुन्ती को सम्मुख देख वितन हो बोला, ‘‘पद पर अन्तर का भक्ति-भाव धरता हूँ, राधा का सुत मैं, देवि ! नमन करता हूँ

‘‘हैं आप कौन ? किसलिए यहाँ आयी हैं ? मेरे निमित्त आदेश कौन लायी हैं ? यह कुरूक्षेत्र की भूमि, युद्ध का स्थल है, अस्तमित हुआ चाहता विभामण्डल है।

‘‘सूना, औघट यह घाट, महा भयकारी, उस पर भी प्रवया आप अकेली नारी। हैं कौन ? देवि ! कहिये, क्या काम करूँ मैं ? क्या भक्ति-भेंट चरणों पर आन धरूँ मैं ?

सुन गिरा गूढ़ कुन्ती का धीरज छूटा, भीतर का क्लेश अपार अश्रु बन फूटा। विगलित हो उसने कहा काँपते स्वर से, ‘‘रे कर्ण ! बेध मत मुझे निदारूण शर से।

‘‘राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है, जो धर्मराज का, वही वंश तेरा है। तू नहीं सूत का पुत्र, राजवंशी है, अर्जुन-समान कुरूकुल का ही अंशी है।

‘‘जिस तरह तीन पुत्रों को मैंने पाया, तू उसी तरह था प्रथम कुक्षि में आया। पा तुझे धन्य थी हुई गोद यह मेरी, मैं ही अभागिनी पृथा जननि हूँ तेरी।

‘‘पर, मैं कुमारिका थी, जब तू आया था, अनमोल लाल मैंने असमय पाया था। अतएव, हाय ! अपने दुधमुँहे तनय से, भागना पड़ा मुझको समाज के भय से

‘‘बेटा, धरती पर बड़ी दीन है नारी, अबला होती, सममुच, योषिता कुमारी। है कठिन बन्द करना समाज के मुख को, सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।

‘‘उस पर भी बाल अबोध, काल बचपन का, सूझा न शोध मुझको कुछ और पतन का। मंजूषा में धर तुझे वज्र कर मन को, धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।


‘‘संयोग, सूतपत्नी ने तुझको पाला, उन दयामयी पर तनिक न मुझे कसाला। ले चल, मैं उनके दोनों पाँव धरूँगी, अग्रजा मान कर सादर अंक भरूँगी।



‘‘पर एक बात सुन, जो कहने आयी हूँ, आदेश नहीं, प्रार्थना साथ लायी हूँ। कल कुरूक्षेत्र में जो संग्राम छिड़ेगा, क्षत्रिय-समाज पर कल जो प्रलय घिरेगा।

‘‘उसमें न पाण्डवों के विरूद्ध हो लड़ तू, मत उन्हें मार, या उनके हाथों मत तू। मेरे ही सुत मेरे सुत को ह मारें; हो क्रुद्ध परस्पर ही प्रतिशोध उतारें।

‘‘यह विकट दृश्य मुझसे न सहा जायेगा, अब और न मुझसे मूक रहा जायेगा। जो छिपकर थी अबतक कुरेदती मन को, बतला दूँगी वह व्यथा समग्र भुवन को।

भागी थी तुझको छोड़ कभी जिस भय से, फिर कभी न हेरा तुझको जिस संशय से, उस जड़ समाज के सिर पर कदम धरूँगी, डर चुकी बहुत, अब और न अधिक डरूँगी।

‘‘थी चाह पंक मन को प्रक्षालित कर लूँ, मरने के पहले तुँझे अंक में भर लूँ। वह समय आज रण के मिस से आया है, अवसर मैंने भी क्या अद्भुत पाया है !

बाज़ी तो मैं हार चुकी कब हो ही, लेकिन, विरंचि निकला कितना निर्मोही ! तुझ तक न आज तक दिया कभी भी आने, यह गोपन जन्म-रहस्य तुझे बतलाने।