|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने खोला,
कुन्ती को सम्मुख देख वितन हो बोला,
मंजूषा में धर तुझे वज्र कर मन को,
धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।
‘‘संयोग, सूतपत्नी ने तुझको पाला,
ले चल, मैं उनके दोनों पाँव धरूँगी,
अग्रजा मान कर सादर अंक भरूँगी।
‘‘पर एक बात सुन, जो कहने आयी हूँ,
तुझ तक न आज तक दिया कभी भी आने,
यह गोपन जन्म-रहस्य तुझे बतलाने।
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