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कवि: [[भवानी प्रसाद मिश्र]]{{KKGlobal}}{{KKRachna[[Category:गीत-फ़रोश]]|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र [[Category:कविताएँ]]}}{{KKCatKavita}}~*~*~*~*~*~*~*~ {{KKPrasiddhRachna}}<poem>जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ । हूँ।
मैं तरह-तरह के
 गीत बेचता हूँ ; मैं सभी क़िसिम-क़िसिम के गीत  बेचता हूँ ।  हूँ।
जी, माल देखिए दाम बताऊँगा,
 
बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा;
 
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
 
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने;
 
यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलायेगा;
 यह गीत पिया को पास बुलायेगा । बुलायेगा।
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझ को
 पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझ को ; जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान । ईमान। जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान । हैरान।
मैं सोच-समझकर आखिर
 
अपने गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।    यह गीत सुबह का है, जा गा कर देखें,  
यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे;
 
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था,
 यह गीत वहाँ पूने में लिखा था । था।
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
 यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है; यह गीत से बढ जाता है 
यह गीत भूख और प्यास भगाता है
 जी, यह मसान में भूत भूख जगाता है; 
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर
 यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर । हुज़ूर।
मैं सीधे-साधे और अटपटे
 
गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।    जी, और गीत भी हैं, दिखालाता दिखलाता हूँ  जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ ; जी, छंद और वेबे-छंद पसंद करें – जी, अमर गीत और वे जो तुरत मरें । मरें।
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
 मैं पा पास रखे हूँ क़लम और दावात  
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ ?
 
इन दिनों की दुहरा है कवि-धंधा,
 हैं दोनों चीज़े व्यस्त, कलम, कंधा । कंधा।
कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के
 जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के । के।
मैं नये पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ।
गीत बेचता हूँ । जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ ।    जी गीत जनम का लिखूँ, मरन मरण का लिखूँ;  जी, गीत जीत का लिखूँ, शरन शरण का लिखूँ ; 
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
 यह गीत पित्त का है, यह बादी का । का।
कुछ और डिजायन भी हैं, ये इल्मी –
 यह लीजे चलती चीज़ नयी, फ़िल्मी । फ़िल्मी।
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
 
यह दुकान से घर जाने का गीत,
 
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात
 मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात । रात।
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
 जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत । गीत।
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ
 गाहक की मर्ज़ी – अच्छा, जाता हूँ । हूँ।
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ –
 या भीतर जा कर पूछ आइये, आप । आप। है गीत बेचना वैसे बिलकु बिलकुल पाप 
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
 गीत बेचता हँ । हँ। जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ ।हूँ।</poem>
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