|रचनाकार=श्यामनारायण पाण्डेय
}}
{{KKCatKavita}}रणबीच {{KKPrasiddhRachna}}<poem>रण बीच चौकड़ी भर-भर कर<br>चेतक बन गया निराला था<br>राणाप्रताप के घोड़े से <br>पड़ गया हवा का पाला था<br><br>
जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था
तब तक चेतक मुड जाता था गिरता न कभी चेतक तन पर<br>राणाप्रताप का कोड़ा था<br>वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर<brref>दुश्मन का माथा</ref> परवह आसमान का घोड़ा था<br><br>
था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरि मस्तक अरिमस्तक पर कहाँ नहीं
निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में
* बढते बढ़ते नद -सा वह लहर गया<br>फिर गया गया फिर ठहर गया<br>बिकराल बज्रमय विकराल वज्रमय बादल -साअरि<brref>दुश्मन</ref>अरि की सेना पर घहर गया ।<br><br> भाला गिर गया गिरा निशंग<br>हय टापों से खन गया अंग
भाला गिर गया गिरा निसंगहय<ref>घोड़ा</ref> टापों से खन गया अंगबैरी समाज रह गया दंग <br>घोड़े का ऐसा देख रंग<br><br/poem>{{KKMeaning}}