Changes

कृपया पुनः इससे छेड़छाड़ न की जाए। मैंने स्वयं अपनी कविता को फायनल किया है।
<poem>
कभी पूरी नींद तक भी
न सोने वाली औरतो !
मेरे पास आओ,
दर्पण है मेरे पास
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,
और, आप !
जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के
के नीचे
लाल से नीले
और नीले से हरेऔर हरे से काले होते
उँगलियों के निशान
चुन्नियों में लिपटे
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं - चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
अंधेरे ने छीन ली है भले
आँखों की देख ,
पर मेरे पास
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला।
 
</poem>
59
edits