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भारत महिमा / जयशंकर प्रसाद

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कवि: [[जयशंकर प्रसाद]]{{KKGlobal}}[[Category: भारत महिमा]]{{KKRachna[[Category: |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद]]}}{{KKCatKavita}}{{KKAnthologyDeshBkthi}}{{KKPrasiddhRachna}}<poem>हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार
~*~*~*~*~*~*~*~ जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक
हिमालय के आँगन विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत सप्तस्वर सप्तसिंधु में उसेउठे, प्रथम किरणों का दे उपहार । छिड़ा तब मधुर साम-संगीत
उषा ने हँस अभिनंदन कियाबचाकर बीज रूप से सृष्टि, और पहनाया हीरकनाव पर झेल प्रलय का शीत अरुण-हार ।। केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत
जगे हमसुना है वह दधीचि का त्याग, लगे जगाने विश्वहमारी जातीयता विकास पुरंदर ने पवि से है लिखा, लोक में फैला फिर आलोक । अस्थि-युग का मेरा इतिहास
व्योमसिंधु-तुम पुँज हुआ तब नाशसा विस्तृत और अथाह, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।। एक निर्वासित का उत्साह दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह
विमल वाणी ने वीणा लीधर्म का ले लेकर जो नाम, कमल कोमल हुआ करती बलि कर में सप्रीत । दी बंद हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठेविजय केवल लोहे की नहीं, छिड़ा तब मधुर सामधर्म की रही धरा पर धूम भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-संगीत ।। घर घूम
बचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय यवन को दिया दया का शीत । दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि
अरुण-केतन लेकर निज हाथकिसी का हमने छीना नहीं, वरुण-पथ में प्रकृति का रहा पालना यहीं हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम बढ़े अभीत ।। आए थे नहीं
सुना है वह दधीचि जातियों का त्यागउत्थान-पतन, हमारी जातीयता का विकास । आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर
पुरंदर ने पवि से है लिखाचरित थे पूत, अस्थि-युग का मेरा इतिहास ।। भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न
सिंधु-सा विस्तृत और अथाहहमारे संचय में था दान, एक निर्वासित का उत्साह । अतिथि थे सदा हमारे देव वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव
दे रही अभी दिखाई भग्नवही है रक्त, मग्न रत्नाकर में वह राह ।। वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान
  धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।  हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।  विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।  भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।  यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।  मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।  किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।  हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।  जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।  खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।  चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।  हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।  हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।  वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।  वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।  वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।  जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।</poem>
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