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"इमकान खुले दर का हर आन बहुत रक्खा / 'सुहैल' अहमद ज़ैदी" के अवतरणों में अंतर
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16:11, 18 अगस्त 2013 के समय का अवतरण
इमकान खुले दर का हर आन बहुत रक्खा
इस गुम्बद-ए-बे-दर ने हैरान बहुत रक्खा
आबाद किया दिल को हंगामा-ए-हसरत से
सहरा-ए-तग-ओ-दौ को वीरान बहुत रक्खा
इक मौज़-ए-फ़ना थी जो रोके न रूकी आख़िर
दीवार बहुत खींची दरबान बहुत रक्खा
तारों में चमक रक्खी फूलों में महक रक्खी
और ख़ाक के पुतले में इम्कान बहुत रक्खा
जलती हुई बत्ती से गुल फूट निकलते हैं
मुश्किल से भी मुश्किल को आसान बहुत रक्खा
कुछ है जो नहीं है बस वो क्या है ख़ुदा जाने
यूँ अपनी समझ से हम सामान बहुत रक्खा
मशकूक है अब हर शय आँखों में ‘सुहैल’ अपनी
हम ने बुत-ए-काफ़िर पर ईमान बहुत रक्खा