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मुखौटा / मायानन्द मिश्र

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आ तहियासँ
ओ बिनु मुखौटाक कहियो सड़क पर नहि बहराएल
 
और अब यही कविता हिन्दी में पढ़ें
 
उस दिन एक अद्भुत घटना घटी
वह बिना मुखौटा लगाए चला आया था सड़क पर
आश्चर्य !
आश्चर्य यह कि उसे पहचान नहीं पा रहा था कोई
लोग उसे पहचानते थे सिर्फ मुखौटे के साथ
लोग उसे पहचानते थे मुखौटे की भंगिमा के साथ
लोग मुखौटे की नकली हँसी को ही समझते थे असल हँसी
मुखौटा ही बन गई थी उसकी वास्तविकता
बन गई थी उसका अस्तित्व
वह घबरा गया
देने लगा अपना परिचय
देता ही रहा अपना परिचय
देखिए, मैं, मैं ही हूँ, इसी शहर का हूँ
देखिए--
बाढ़ में बहती चीज़ों की तरह सड़क पर बहती जा रही छोड़विहीन अनियन्त्रित भीड़
चौराहा भरा हुआ है हिंसक जानवरों से
गली में है रोशनी से भरा अँधियारा
कई हँसी से होने वाली आवाज़, कई हाथ
सब कुछ है अपने इसी शहर का
है या नहीं?
देखिए
सड़क के नुक्कड़ पर रटे-रटाए
प्रलाप करती सफ़ेद धोती कुर्ता-बंडी
सड़क पर, ब्लाउज के पारदर्शी फीते को नोचते
पीछे-पीछे आती कई घिनौनी दृष्टियाँ
देखिए
अस्पताल के बरामदे पर नकली दवाई से दम तोड़ते असली मरीज
एसेम्बली के गेट पर गोली खाती भूखी भीड़
वकालतख़ाने में कानून को बिकती जिल्दहीन क़िताब
मैं कह सकता हूँ सभी बातें अपने नगर को लेकर
मैं इसी शहर का हूँ, विश्वास करें
लेकिन लोगों ने कर दिया पहचानने से इनकार
वह घबरा गया, डर गया और भागा अपने घर की ओर
घर जाकर फिर से पहन लिया उसने अपना मुखौटा
तो पहचानने लगे सब उसे तुरन्त
और उस दिन से
वह कभी भी बाहर सड़क पर नहीं आया बिना मुखौटा लगाए।
 
अनुवाद: विनीत उत्पल
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