"हाइकु कविताएँ / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर
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कंकरीट के वन | कंकरीट के वन | ||
उदास मन ! | उदास मन ! | ||
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धूप के पाँव | धूप के पाँव | ||
थके अनमने से | थके अनमने से | ||
बैठे सहमे। | बैठे सहमे। | ||
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मरने न दो | मरने न दो | ||
परम्पराओं को कभी | परम्पराओं को कभी | ||
बचोगे तभी। | बचोगे तभी। | ||
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छिड़ा जो युद्ध | छिड़ा जो युद्ध | ||
रोयेगी मानवता | रोयेगी मानवता | ||
हँसगे गिद्ध। | हँसगे गिद्ध। | ||
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कुछ कम हो | कुछ कम हो | ||
शायद ये कुहासा | शायद ये कुहासा | ||
यही प्रत्याशा। | यही प्रत्याशा। | ||
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मिलने भी दो | मिलने भी दो | ||
राम और ईसा को | राम और ईसा को | ||
भिन्न हैं कहाँ ! | भिन्न हैं कहाँ ! | ||
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बिना धुरी के | बिना धुरी के | ||
घूम रही है चक्की | घूम रही है चक्की | ||
पिसेंगे सब। | पिसेंगे सब। | ||
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चींटी बने हो | चींटी बने हो | ||
रौंदे तो जाआगे ही | रौंदे तो जाआगे ही | ||
रोना धोना क्यों? | रोना धोना क्यों? | ||
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सूर्य के पाँव | सूर्य के पाँव | ||
चूमकर सो गए | चूमकर सो गए | ||
गाँव के गाँव। | गाँव के गाँव। | ||
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यूँ ही न बहो | यूँ ही न बहो | ||
पर्वत–सा ठहरो | पर्वत–सा ठहरो | ||
मन की कहो। | मन की कहो। | ||
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पतंग उड़ी | पतंग उड़ी | ||
डोर कटी‚ बिछुड़ी | डोर कटी‚ बिछुड़ी | ||
फिर न मिली। | फिर न मिली। | ||
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बूढा. सूरज | बूढा. सूरज | ||
झेलेगा कब तक | झेलेगा कब तक | ||
तम के दंश। | तम के दंश। | ||
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निगल गई | निगल गई | ||
सदियों का सृजन | सदियों का सृजन | ||
क्रोधित धरा। | क्रोधित धरा। | ||
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मुढ़ैठा बाँधे | मुढ़ैठा बाँधे | ||
अकड़ा खड़ा चना | अकड़ा खड़ा चना | ||
माटी का बेटा। | माटी का बेटा। | ||
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− | + | धूप गौरैया | |
− | + | उतरती छज्जे से | |
+ | आँगन बीच ! | ||
+ | * | ||
+ | थका सूरज | ||
+ | ढहा देगा फिर भी | ||
+ | तम का दुर्ग। | ||
+ | * | ||
+ | पीटता नभ | ||
+ | बिजली के कोढ़े से | ||
+ | रोता बादल ! | ||
+ | * | ||
+ | रोज ले आती | ||
+ | गौरैया घास-फूस | ||
+ | फेंक देती माँ ! | ||
+ | * | ||
+ | साँझ होते ही | ||
+ | बैठता आसन पे | ||
+ | ऋषि सूरज। | ||
+ | * | ||
+ | गंध के बोरे | ||
+ | लाता है ढो ढोकर | ||
+ | हवा का घोड़ा। | ||
+ | * | ||
+ | ओस की बूँद | ||
+ | कैक्टस पर बैठी | ||
+ | शूली पे सन्त ! | ||
+ | * | ||
+ | अनाम गन्ध | ||
+ | बिखेर रही हवा | ||
+ | धान के खेत। | ||
+ | * | ||
+ | हाइकु हंस | ||
+ | हौले से हवा हुआ | ||
+ | काँपा शैवाल। | ||
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क्यों तू उदास | क्यों तू उदास | ||
दूब अभी है ज़िन्दा | दूब अभी है ज़िन्दा | ||
पिक कूकेगा । | पिक कूकेगा । | ||
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शहरी चक्की | शहरी चक्की | ||
लोकगीत पीसना | लोकगीत पीसना | ||
अबाध गति। | अबाध गति। | ||
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सहम गई | सहम गई | ||
फुदकती गौरैया | फुदकती गौरैया | ||
शुभ नहीं ये। | शुभ नहीं ये। | ||
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लोक रोपता | लोक रोपता | ||
महाकाव्य की पौध | महाकाव्य की पौध | ||
लुनता कवि। | लुनता कवि। | ||
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बादल रोया | बादल रोया | ||
धरती भी उमगी | धरती भी उमगी | ||
फसल उगी। | फसल उगी। | ||
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स्वागत हुआ | स्वागत हुआ | ||
दूब–धान आया | दूब–धान आया | ||
लोक जीवन। | लोक जीवन। | ||
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नदी बनाता | नदी बनाता | ||
सोख हवा से नमीं | सोख हवा से नमीं | ||
वृद्ध पहाड़। | वृद्ध पहाड़। | ||
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छीन लेता है | छीन लेता है | ||
धनी मेघों से जल | धनी मेघों से जल | ||
दानी पहाड़। | दानी पहाड़। | ||
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रात सिसकी | रात सिसकी | ||
दूब ने सजा लिए | दूब ने सजा लिए | ||
कई हाइकु। | कई हाइकु। | ||
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13:06, 1 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण
उगने लगे
कंकरीट के वन
उदास मन !
धूप के पाँव
थके अनमने से
बैठे सहमे।
मरने न दो
परम्पराओं को कभी
बचोगे तभी।
छिड़ा जो युद्ध
रोयेगी मानवता
हँसगे गिद्ध।
कुछ कम हो
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा।
मिलने भी दो
राम और ईसा को
भिन्न हैं कहाँ !
बिना धुरी के
घूम रही है चक्की
पिसेंगे सब।
चींटी बने हो
रौंदे तो जाआगे ही
रोना धोना क्यों?
सूर्य के पाँव
चूमकर सो गए
गाँव के गाँव।
यूँ ही न बहो
पर्वत–सा ठहरो
मन की कहो।
पतंग उड़ी
डोर कटी‚ बिछुड़ी
फिर न मिली।
बूढा. सूरज
झेलेगा कब तक
तम के दंश।
निगल गई
सदियों का सृजन
क्रोधित धरा।
मुढ़ैठा बाँधे
अकड़ा खड़ा चना
माटी का बेटा।
धूप गौरैया
उतरती छज्जे से
आँगन बीच !
थका सूरज
ढहा देगा फिर भी
तम का दुर्ग।
पीटता नभ
बिजली के कोढ़े से
रोता बादल !
रोज ले आती
गौरैया घास-फूस
फेंक देती माँ !
साँझ होते ही
बैठता आसन पे
ऋषि सूरज।
गंध के बोरे
लाता है ढो ढोकर
हवा का घोड़ा।
ओस की बूँद
कैक्टस पर बैठी
शूली पे सन्त !
अनाम गन्ध
बिखेर रही हवा
धान के खेत।
हाइकु हंस
हौले से हवा हुआ
काँपा शैवाल।
क्यों तू उदास
दूब अभी है ज़िन्दा
पिक कूकेगा ।
शहरी चक्की
लोकगीत पीसना
अबाध गति।
सहम गई
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये।
लोक रोपता
महाकाव्य की पौध
लुनता कवि।
बादल रोया
धरती भी उमगी
फसल उगी।
स्वागत हुआ
दूब–धान आया
लोक जीवन।
नदी बनाता
सोख हवा से नमीं
वृद्ध पहाड़।
छीन लेता है
धनी मेघों से जल
दानी पहाड़।
रात सिसकी
दूब ने सजा लिए
कई हाइकु।