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कलिंग-विजय / रामधारी सिंह "दिनकर"

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{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|संग्रह=सामधेनी / रामधारी सिंह "दिनकर";इतिहास के आँसू / रामधारी सिंह "दिनकर"
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::मौन हैं चारों दिशाएँ, स्तब्ध है आकाश,
::श्रव्य जो भी शब्द वे उठते मरण के पास।
शब्द? यानी घायलों की आह,
घाव के मारे हुओं की क्षीण, करुण कराह,
बह रहा जिसका लहू उसकी करुण चीत्कार,
श्वान जिसको नोचते उसकी अधीर पुकार।
"घूँट भर पानी, जरा पानी" रटन, फिर मौन;
घूँट भर पानी अमृत है, आज देगा कौन?
::बोलते यम के सहोदर श्वान,
::बोलते जम्बुक कृतान्त - समान।
मृत्यु गढ़ पर है खड़ा जयकेतु रेखाकार,
हो गई हो शान्ति मरघट की यथा साकार।
चल रहा ध्वज के हृदय में द्वन्द्व,
वैजयन्ती है झुकी निस्पन्द।
:जा चुके सब लोग फिर आवास,
:हतमना कुछ और कुछ सोल्लास।
:अंक में घायल, मृतक, निश्वेत,
:शूर-वीरों को लिटाये रह गया रण-खेत।
और इस सुनसान में निःसंग,
खोजते सच्छान्ति का परिष्वंग,
मूर्तिमय परिताप-से विभ्राट,
हैं खड़े केवल मगध-सम्राट।
:टेक सिर ध्वज का लिये अवलम्ब,
:आँख से झर - झर बहाते अम्बु।
:भूलकर भूपाल का अहमित्व,
:शीश पर वध का लिये दायित्व।
जा चुकी है दृष्टि जग के पार,
आ रहा सम्मुख नया संसार।
चीर वक्षोदेश भीतर पैठ,
देवता कोई हॄदय में बैठ,
दे रहा है सत्य का संवाद,
सुन रहे सम्राट कोई नाद।
:"मन्द मानव! वासना के भृत्य!
:देख ले भर आँख निज दुष्कृत्य।
:यह धरा तेरी न थी उपनीत,
:शत्रु की त्यों ही नहीं थी क्रीत।
सृष्टि सारी एक प्रभु का राज,
स्वत्व है सबका प्रजा के व्याज।
मानकर प्रति जीव का अधिकार,
ढो रही धरणी सभी का भार।
:एक ही स्तन का पयस कर पान,
:जी रहे बलहीन औ बलवान।
:देखने को बिम्ब - रूप अनेक,
:किन्तु, दृश्याधार दर्पण एक
मृत्ति तो बिकती यहाँ बेदाम,
साँस से चलता मनुज का काम।
मृत्तिका हो याकि दीपित स्वर्ण,
साँस पाकर मूर्ति होती पूर्ण।
:राज या बल पा अमित अनमोल,
:साँस का बढ़ता न किंचित मोल।
:दीनता, दौर्बल्य का अपमान,
:त्यों घटा सकते न इसका मान।
:तू हुआ सब कुछ, मनुज लेकिन, रहा अब क्या न?
:जो नहीं कुछ बन सका, वह भी मनुज है, मान।
हाय रे धनलुब्ध जीव कठोर!
हाय रे दारुण! मुकुटधर भूप लोलुप, चोर।
साज कर इतना बड़ा सामान,
स्वत्व निज सर्वत्र अपना मान।
खड्ग - बल का ले मृषा आधार,
छीनता फिरता मनुज के प्राकृतिक अधिकार।
:चरण से प्रभु के नियम को चाप,
:तू बना है चाहता भगवान अपना आप।
:भौं उठा पाये न तेरे सामने बलहीन,
:इसलिए ही तो प्रलय यह! हाय रे हिय-हीन!
:शमित करने को स्वमद अति ऊन,
:चाहिए तुझको मनुज का खून।
क्रूरता का साथ ले आख्यान,
जा चुके हैं, जा रहे हैं प्राण।
स्वर्ग में है आज हाहाकार,
चाहता उजड़ा, बसा संसार।
::भूमि का मानी महीप अशोक
::बाँटता फिरता चतुर्दिक शोक।
::"बाँटता सुत-शोक औ वैधव्य,
::बाँटता पशु को मनुज का क्रव्य।
लूटता है गोदियों के लाल,
लूटता सिन्दूर - सज्जित भाल।
यह मनुज - तन में किसी शक्रारि का अवतार,
लूट लेता है नगर की सिद्धि, सुख, श्रृंगार।
::शमित करने को स्वमद अति ऊन,
::चाहिए उसको मनुज का खून।"
आत्म - दंशन की व्यथा, परिताप, पश्वाताप,
डँस रहे सब मिल, उठा है भूप का मन काँप।
स्तब्धता को भेद बारम्बार,
आ रहा है क्षीण हाहाकार।
यह हृदय - द्रावक, करुण वैधव्य की चीत्कार!
यह किसी बूढ़े पिता की भग्न, आर्त्त पुकार!
यह किसी मृतवत्सला की आह!
आ रही करती हुई दिवदाह!
आ रही है दुर्बलों की हाय,
सूझता है त्राण का नृप को न एक उपाय!
आह की सेना अजेय विराट,
भाग जा, छिप जा कहीं सम्राट।
 
खड्ग से होगी नहीं यह भीत,
तू कभी इसको न सकता जीत।
 
सामने मन के विरूपाकार,
है खड़ा उल्लंग हो संहार।
षोडशी शुक्लाम्बराएँ आभरण कर दूर,
धूल मल कर धो रही हैं माँग का सिंदूर।
वीर - बेटों की चिताएँ देख ज्वलित समक्ष,
रो रहीं माँएँ हजारों पीटती सिर - वक्ष।
 
हैं खुले नृप के हृदय के कान;
हैं खुले मन के नयन अम्लान।
सुन रहे हैं विह्वला की आह,
देखते हैं स्पष्ट शव का दाह।
:सुन रहे हैं भूप होकर व्यग्र,
:रो रहा कैसे कलिंग समग्र।
रो रही हैं वे कि जिनका जल गया श्रृंगार;
रो रहीं जिनका गया मिट फूलता संसार;
जल गई उम्मीद, जिनका जल गया है प्यार;
रो रहीं जिनका गया छिन एक ही आधार।
 
चुड़ियाँ दो एक की प्रतिगृह हुई हैं चूर,
पुँछ गया प्रति गेह से दो एक का सिन्दूर।
बुझ गया प्रतिगृह किसी की आँख का आलोक।
इस महा विध्वंस का दायी महीप अशोक।
:ध्यान में थे हो रहे आघात,
:कान ने सुनली मगर यह बात।
:नाम सुन अपना उसाँसें खींच,
:नाक, भौं, आँखें घृणा से मींच,
इस तरह बोले महीपति खिन्न
आप से ज्यों हो गये हों भिन्न:--
"विश्व में पापी महीप अशोक,
छीनता है आँख का आलोक।"
 
देह के दुर्द्घष पशु को मार,
ले चुके हैं देवता अवतार।
निन्द्य लगते पूर्वकृत सब काम,
सुन न सकते आज वे निज नाम।
 
अश्रु में घुल बह गया कुत्सित, निहीन, विवर्ण,
रह गया है शेष केवल तप्त, निर्मल स्वर्ण।
हूक - सी आकर गई कोई हृदय को तोड़,
ठेस से विष - भाण्ड को कोई गई है फोड़।
 
बह गया है अश्रु बनकर कालकूट ज्वलन्त,
जा रहा भरता दया के दूध से वेशन्त।
 
दूध अन्तर का सरल, अम्लान,
खिल रहा मुख - देश पर द्युतिमान।
किन्तु, हैं अब भी झनत्कृत तार,
बोलते हैं भूप बारम्बार--
"हाय रे गर्हित विजय - मद ऊन,
क्या किया मैंने! बहाया आदमी का खून!"
 
खुल गई है शुभ्र मन की आँख,
खुल गई है चेतना की पाँख;
प्राण की अन्तःशिला पर आज पहली बार,
जागकर करुणा उठी है कर मृदुल झनकार।
 
आँसुओं में गल रहे हैं प्राण
खिल रहा मन में कमल अम्लान।
 
गिर गया हतबुद्धि - सा थककर पुरुष दुर्जेय,
प्राण से निकली अनामय नारि एक अमेय।
अर्द्धनारीश्वर अशोक महीप;
नर पराजित, नारि सजती है विजय का दीप।
 
पायलों की सुन मृदुल झनकार,
गिर गई कर से स्वयं तलवार।
वज्र का उर हो गया दो टूक,
जग उठी कोई हृदय में हूक।
 
लाल किरणों में यथा हँसता तटी का देश,
एक कोमल ज्ञान से त्यों खिल उठा हृद्देश।
खोल दृग, चारों तरफ अवलोक,
सिर झुका कहने लगे मानी महीप अशोक:--
 
"हे नियन्ता विश्व के कोई अर्चिन्त्य, अमेय!
ईश या जगदीश कोई शक्ति हे अज्ञेय!
 
हों नहीं क्षन्तव्य जो मेरे विगर्हित पाप,
दो वचन अक्षय रहे यह ग्लानि, यह परिताप।
 
प्राण में बल दो, रखूँ निज को सैदव सँभाल,
देव, गर्वस्फीत हो ऊँचा उठे मत भाल।
 
शत्रु हो कोई नहीं, हो आत्मवत् संसार,
पुत्र - सा पशु - पक्षियों को भी सकूँ कर प्यार।
 
मिट नहीं जाए किसी का चरण - चिह्न पुनीत,
राह में भी मैं चलूँ पग-पग सजग, संभीत।
::हो नहीं मुझको किसी पर रोष,
::धर्म्म का गूँजे जगत में घोष।
बुद्ध की जय! धम्म की जय! संघ का जय - गान,
आ बसें तुझमें तथागत मारजित् भगवान।"
::देवता को सौंप कर सर्वस्व,
::भूप मन ही मन गये हो निःस्व।
और तब उन्मादिनी सोल्लास,
रक्त पर बहती विजय आई वरण को पास।
संग लेकर ब्याह का उपहार,
रक्त-कर्दम के कमल का हार।
 
पर, डिगे तिल-भर न वीर महीप;
थी जला करुणा चुकी तब तक विजय का दीप।
</poem>
'''रचनाकाल: १९४१'''