था आम्रपाली का घर<br>
मेरी ननिहाल के उत्तर !<br>
आज भी हर पूनो की रात<br>
खाली कटोरा लिये हाथ<br>
गुजरती गुज़रती है वैशाली के खंडहरों से<br>
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली।<br><br>
चलती है सीधी-मानो खुद से बातें करती-<br>
शरदकाल में जैसे<br>
(कमंडल-वमंडल बनाने की खातिरख़ातिर)<br>
पकने को छोड़ दी जाती है<br>
लतर में ही लौकी-<br>
पक रही है मेरी हर मांसपेशीमाँसपेशी,<br>
खदर-बदर है मेरे भीतर का<br>
हहाता हुआ सत !<br><br>
सूखती-टटाती हुई<br>
सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-<br>
नगरवधू-बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकी<br>
एक झलक को तरसते थे ?<br>ये मेरे सन-से सफेद सफ़ेद बाल<br>
थे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,<br>
नीलमणि थीं मेरी आँखें<br>
बेले के फूलों-सी झक सफेद सफ़ेद दन्तपंक्ति :<br>खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाजा दरवाज़ा हैं अब जो !<br>
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,<br>
बुद्ध को घर न्योतकर<br>
कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से<br>
टकरा गया मेरे रथ का<br>
धुर के धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ !<br>
लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,<br>
बोले वे चीखकरचीख़कर-<br><br>
‘‘जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से<br>
‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ<br>
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’<br>
‘‘जे आम्रपाली !<br>सौ हजार हज़ार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे !’’<br>
‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,<br>
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली !’’<br>
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार<br>
चटकाने लगे उँगलियाँ उंगलियाँ :<br>
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,<br>
बुद्ध को जीतें !’<br>
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,<br>
उन्हें घर न्योता,<br>
बहती रही<br>
सदियों<br>
इस तट से उस तट तक !<br>
टिमकता रहा एक अंगारा,<br>
तिरता रहा राख की इस नदी पर<br>
ठना-बना<br>
तैरा लगातार !<br>तैरी सोने की तरी !<br>राख की इच्छामती !<br>राख की गंगा !<br>
राख की कृष्णा-कावेरी।<br>
झुर्रियों की पोटली में<br><br>
बीज थोड़े से सुरक्षित हैं-<br>
वो ही मैं डालती जाती हूँ<br>
अब इधर-उधर !<br>
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,<br>
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,<br>
बाकी बाक़ी खिले जाते हैं जिधर-तिधर<br>
चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’<br><br>
सुनती हूँ मैं गौर ग़ौर से आम्रपाली की बातें<br>
सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-<br>
जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है !<br>
हरियाली ही बीज का सपना,<br>
रस ही रसायन है !<br>कमंडल-वमंडल बनाने की खातिरख़ातिर<br>
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है<br>
लतर में ही लौकी<br>
पक रही है मेरी हर मांसपेशी माँसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?<br>कितनी तो सुन्दर सुंदर है<br>
हर रूप में दुनिया !