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था आम्रपाली का घर<br>
 
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आज भी हर पूनो की रात<br>
 
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खाली कटोरा लिये हाथ<br>
 
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चलती है सीधी-मानो खुद से बातें करती-<br>
 
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शरदकाल में जैसे<br>
 
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(कमंडल-वमंडल बनाने की खातिर)<br>
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पकने को छोड़ दी जाती है<br>
 
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लतर में ही लौकी-<br>
 
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पक रही है मेरी हर मांसपेशी,<br>
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खदर-बदर है मेरे भीतर का<br>
 
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सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-<br>
 
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नगरवधू-बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकी<br>
 
नगरवधू-बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकी<br>
एक झलक को तरसते थे ?<br>
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ये मेरे सन-से सफेद बाल<br>
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थे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,<br>
 
थे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,<br>
 
नीलमणि थीं मेरी आँखें<br>
 
नीलमणि थीं मेरी आँखें<br>
बेले के फूलों-सी झक सफेद दन्तपंक्ति :<br>
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खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाजा हैं अब जो !<br>
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खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाज़ा हैं अब जो!<br>
 
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,<br>
 
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बुद्ध को घर न्योतकर<br>
 
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कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से<br>
 
कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से<br>
 
टकरा गया मेरे रथ का<br>
 
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धुर के धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ !<br>
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लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,<br>
 
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‘‘जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से<br>
 
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‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ<br>
 
‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ<br>
 
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’<br>
 
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’<br>
‘‘जे आम्रपाली !<br>
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सौ हजार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे !’’<br>
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सौ हज़ार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे!’’<br>
 
‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,<br>
 
‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,<br>
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली !’’<br>
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मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली!’’<br>
 
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार<br>
 
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार<br>
चटकाने लगे उँगलियाँ :<br>
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‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,<br>
 
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,<br>
बुद्ध को जीतें !’<br>
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बुद्ध को जीतें!’<br>
 
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,<br>
 
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उन्हें घर न्योता,<br>
 
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इस तट से उस तट तक !<br>
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टिमकता रहा एक अंगारा,<br>
 
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तिरता रहा राख की इस नदी पर<br>
 
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राख की कृष्णा-कावेरी।<br>
 
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वो ही मैं डालती जाती हूँ<br>
 
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अब इधर-उधर !<br>
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गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,<br>
 
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,<br>
 
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,<br>
 
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बाकी खिले जाते हैं जिधर-तिधर<br>
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चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’<br><br>
 
चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’<br><br>
  
सुनती हूँ मैं गौर से आम्रपाली की बातें<br>
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सुनती हूँ मैं ग़ौर से आम्रपाली की बातें<br>
 
सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-<br>
 
सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-<br>
जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है !<br>
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हरियाली ही बीज का सपना,<br>
 
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रस ही रसायन है !<br>
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कमंडल-वमंडल बनाने की खातिर<br>
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कमंडल-वमंडल बनाने की ख़ातिर<br>
 
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है<br>
 
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है<br>
 
लतर में ही लौकी<br>
 
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पक रही है मेरी हर मांसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?<br>
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पक रही है मेरी हर माँसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?<br>
कितनी तो सुन्दर है<br>
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कितनी तो सुंदर है<br>
 
हर रूप में दुनिया !
 
हर रूप में दुनिया !

18:08, 2 मई 2008 का अवतरण

था आम्रपाली का घर
मेरी ननिहाल के उत्तर!
आज भी हर पूनो की रात
खाली कटोरा लिये हाथ
गुज़रती है वैशाली के खंडहरों से
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली।

अगल-बगल नहीं देखती,
चलती है सीधी-मानो खुद से बातें करती-
शरदकाल में जैसे
(कमंडल-वमंडल बनाने की ख़ातिर)
पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी-
पक रही है मेरी हर माँसपेशी,
खदर-बदर है मेरे भीतर का
हहाता हुआ सत!

सूखती-टटाती हुई
हड्डियाँ मेरी
मरे कबूतर-जैसी
इधर-उधर फेंकी हुईं मुझमें।
सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-
नगरवधू-बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकी
एक झलक को तरसते थे?
ये मेरे सन-से सफ़ेद बाल
थे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,
नीलमणि थीं मेरी आँखें
बेले के फूलों-सी झक सफ़ेद दन्तपंक्ति :
खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाज़ा हैं अब जो!
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,
बुद्ध को घर न्योतकर
अपने रथ से जब मैं लौट रही थी

कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से
टकरा गया मेरे रथ का
धुर के धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ!
लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,
बोले वे चीख़कर-

‘‘जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से
धुर अपना टकराती है ?’’

‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’
‘‘जे आम्रपाली!
सौ हज़ार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे!’’
‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली!’’
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार
चटकाने लगे उंगलियाँ :
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,
बुद्ध को जीतें!’
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,
उन्हें घर न्योता,
पर बुद्ध ने मान मेरा ही रखा
और कहा-‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,
बाकी सब ढह जाएगा...’
‘‘तो बहा काल-नद में मेरा वैभव...
राख की इच्छामती,
राख की गंगा,
राख की कृष्णा-कावेरी,
गरम राख की ढेरी
यह काया
बहती रही
सदियों
इस तट से उस तट तक!
टिमकता रहा एक अंगारा,
तिरता रहा राख की इस नदी पर
बना-ठना,

ठना-बना
तैरा लगातार!
तैरी सोने की तरी!
राख की इच्छामती!
राख की गंगा!
राख की कृष्णा-कावेरी।
झुर्रियों की पोटली में

बीज थोड़े से सुरक्षित हैं-
वो ही मैं डालती जाती हूँ
अब इधर-उधर!
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,
बाक़ी खिले जाते हैं जिधर-तिधर
चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’

सुनती हूँ मैं ग़ौर से आम्रपाली की बातें
सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-
जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है!
हरियाली ही बीज का सपना,
रस ही रसायन है!
कमंडल-वमंडल बनाने की ख़ातिर
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर माँसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?
कितनी तो सुंदर है
हर रूप में दुनिया !