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"तुलसी का झोला / अनामिका" के अवतरणों में अंतर

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मैं रत्ना-कहते थे मुझको रतन तुलसी<br>
 
मैं रत्ना-कहते थे मुझको रतन तुलसी<br>
रतन-मगर गूदड़ में सिला हुआ !<br>
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रतन-मगर गूदड़ में सिला हुआ!<br>
किसी-किसी तरह सांस लेती रही<br>
+
किसी-किसी तरह साँस लेती रही<br>
 
अपने गूदड़ में<br>
 
अपने गूदड़ में<br>
उजबुजाती-अकबकाती हुई !<br>
+
उजबुजाती-अकबकाती हुई!<br>
सदियों तक मैंने किया इन्तजार-<br>
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सदियों तक मैंने किया इन्तज़ार-<br>
 
आएगा कोई, तोड़ेगा टाँके गूदड़ के,<br>
 
आएगा कोई, तोड़ेगा टाँके गूदड़ के,<br>
ले जाएगा मुझको आके !<br><br>
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ले जाएगा मुझको आके!<br><br>
  
 
पर तुमने तो पा लिया था अब राम-रतन,<br>
 
पर तुमने तो पा लिया था अब राम-रतन,<br>
इस रत्ना की याद आती क्यों ?<br>
+
इस रत्ना की याद आती क्यों?<br>
 
‘घन-घमंड’ वाली चौपाई भी लिखते हुए<br>
 
‘घन-घमंड’ वाली चौपाई भी लिखते हुए<br>
याद आयी ?...नहीं आयी ?<br>
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याद आई ?...नहीं आई?<br>
 
‘घन-घमंड’ वाली ही थी रात वह भी<br>
 
‘घन-घमंड’ वाली ही थी रात वह भी<br>
जब मैं तुमसे झगड़ी थी !<br>
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जब मैं तुमसे झगड़ी थी!<br>
 
कोई जाने या नहीं जाने, मैं जानती हूँ क्यों तुमने<br>
 
कोई जाने या नहीं जाने, मैं जानती हूँ क्यों तुमने<br>
‘घमंड’ की पटरी ‘घन’ से बैठाई !<br><br>
+
‘घमंड’ की पटरी ‘घन’ से बैठाई!<br><br>
  
 
नैहर बस घर ही नहीं होता,<br>
 
नैहर बस घर ही नहीं होता,<br>
होता है नैहर अगरधत्त अँगड़ाई,<br>
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होता है नैहर अगरधत्त अंगड़ाई,<br>
एक निश्चिन्त उबासी, एक नन्ही-सी फुर्सत !<br>
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एक निश्चिन्त उबासी, एक नन्ही-सी फ़ुर्सत!<br>
तुमने उस इत्ती-सी फुर्सत पर<br>
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तुमने उस इत्ती-सी फ़ुर्सत पर<br>
 
बोल दिया धावा<br>
 
बोल दिया धावा<br>
 
तो मेरे हे रामबोला, बमभोला-<br>
 
तो मेरे हे रामबोला, बमभोला-<br>
मैंने तुम्हें डाँटा !<br><br>
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मैंने तुम्हें डाँटा!<br><br>
  
 
डाँटा तो सुन लेते<br>
 
डाँटा तो सुन लेते<br>
 
जैसे सुना करती थी मैं तुम्हारी...<br>
 
जैसे सुना करती थी मैं तुम्हारी...<br>
पर तुमने दिशा ही बदल दी !<br>
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पर तुमने दिशा ही बदल दी!<br>
थोड़ी सी फुर्सत चाही थी !<br>
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थोड़ी सी फुर्सत चाही थी!<br>
फुर्सत नमक ही है, चाहिए थोड़ी-सी,<br>
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फ़ुर्सत नमक ही है, चाहिए थोड़ी-सी,<br>
तुमने तो सारा समुन्दर ही फुर्सत का<br>
+
तुमने तो सारा समुन्दर ही फ़ुर्सत का<br>
सर पर पटक डाला !<br><br>
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सर पर पटक डाला!<br><br>
  
 
रोज फींचती हूँ मैं साड़ी<br>
 
रोज फींचती हूँ मैं साड़ी<br>
 
कितने पटके, कितनी रगड़-झगड़-<br>
 
कितने पटके, कितनी रगड़-झगड़-<br>
 
तार-तार होकर भी<br>
 
तार-तार होकर भी<br>
वह मुझसे रहती है सटी हुई !<br>
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वह मुझसे रहती है सटी हुई!<br>
अलगनी से किसी आँधी में<br>
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अलगनी से किसी आंधी में<br>
उड़ तो नहीं जाती !<br><br>
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उड़ तो नहीं जाती!<br><br>
  
 
कुछ देर को रूठ सकते थे,<br>
 
कुछ देर को रूठ सकते थे,<br>
ये क्या कि छोड़ चले !<br>
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ये क्या कि छोड़ चले!<br>
 
क्या सिर्फ गलियों-चौबारों में मिलते हैं<br>
 
क्या सिर्फ गलियों-चौबारों में मिलते हैं<br>
राम तुम्हारे ?<br>
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राम तुम्हारे?<br>
 
‘आराम’ में भी तो एक ‘राम’ है कि नहीं-<br>
 
‘आराम’ में भी तो एक ‘राम’ है कि नहीं-<br>
‘आराम’ जो तुमको मेरी गोदी में मिलता था ?<br>
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‘आराम’ जो तुमको मेरी गोदी में मिलता था?<br>
मेरी गोदी भी अयोध्या थी, थी काशी !<br>
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मेरी गोदी भी अयोध्या थी, थी काशी!<br>
तुमने कोशिश तो की होती इस काशी-करवट की !<br>
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तुमने कोशिश तो की होती इस काशी-करवट की!<br>
 
एक ‘विनय पत्रिका’ मेरी भी तो है,<br>
 
एक ‘विनय पत्रिका’ मेरी भी तो है,<br>
 
लिखी गयी थी वो समानान्तर<br>
 
लिखी गयी थी वो समानान्तर<br>
लेकिन बाँची नहीं गयी अब तलक !<br><br>
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लेकिन बाँची नहीं गयी अब तलक!<br><br>
  
 
जब कुछ सखियों ने बताया-<br>
 
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हर आने-जाने वाले को-<br>
 
हर आने-जाने वाले को-<br>
 
मैंने सोचा, मैं भी हो आऊँ,<br>
 
मैंने सोचा, मैं भी हो आऊँ,<br>
चौंका दूँ एकदम से सामने आकर !<br>
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चौंका दूँ एकदम से सामने आकर!<br>
 
पर एक नन्हा-सा डर भी<br>
 
पर एक नन्हा-सा डर भी<br>
 
पल रहा था गर्भ में मेरे,<br>
 
पल रहा था गर्भ में मेरे,<br>
क्या होगा जो तुम पहचान नहीं पाये<br>
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क्या होगा जो तुम पहचान नहीं पाए<br>
भक्तों की भीड़-भाड़ में ?<br><br>
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आईना कहता है, बदल गया है मेरा चेहरा,<br>
 
आईना कहता है, बदल गया है मेरा चेहरा,<br>
 
उतर गया है मेरे चेहरे का सारा नमक<br>
 
उतर गया है मेरे चेहरे का सारा नमक<br>
नमक से नमक धुल गया है (आँखों से चेहरे का !)<br><br>
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नमक से नमक धुल गया है (आँखों से चेहरे का!)<br><br>
  
 
आँखों के नीचे<br>
 
आँखों के नीचे<br>
 
गहरी गुफा की<br>
 
गहरी गुफा की<br>
हहाती हुई एक साँझ उतर आयी है !<br>
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गर्दन के नीचे के दोनों कबूतर<br>
 
गर्दन के नीचे के दोनों कबूतर<br>
 
चोंच अपनी गड़ाकर पंख में बैठे-<br>
 
चोंच अपनी गड़ाकर पंख में बैठे-<br>
 
काँपते हैं लगातार-<br>
 
काँपते हैं लगातार-<br>
आँसू की दो बड़ी बूँदें ही अब दीखते हैं वे !<br><br>
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आँसू की दो बड़ी बूंदें ही अब दीखते हैं वे!<br><br>
  
 
सोचती हूँ-कैसे वे लगते-<br>
 
सोचती हूँ-कैसे वे लगते-<br>
दूध की दो बड़ी बूँदें जो होते- <br>
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दूध की दो बड़ी बूंदें जो होते- <br>
 
आँचल में होता जो कोई रामबोला-<br>
 
आँचल में होता जो कोई रामबोला-<br>
सीधा उसके होंठ में वे टपकते !<br>
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सीधा उसके होंठ में वे टपकते!<br>
सोचती गयी रास्ते-भर-कैसे मिलोगे !<br>
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सोचती गयी रास्ते-भर-कैसे मिलोगे!<br>
 
सौत तो नहीं न बनी होगी<br>
 
सौत तो नहीं न बनी होगी<br>
 
वो तुम्हारी रामभक्ति<br><br>
 
वो तुम्हारी रामभक्ति<br><br>
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एक बार नहीं, कुल सात बार<br>
 
एक बार नहीं, कुल सात बार<br>
पास मैं तुम्हारे गयी<br>
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सात बहाने लेकर !<br>
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देखा नहीं लेकिन एक बार भी तुमने<br>
 
देखा नहीं लेकिन एक बार भी तुमने<br>
आँख उठाकर !<br>
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क्या मेरी आवाज भूल गये-<br>
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क्या मेरी आवाज़ भूल गये-<br>
 
जिसकी हल्की-सी भी खुसुर-फुसुर पर<br>
 
जिसकी हल्की-सी भी खुसुर-फुसुर पर<br>
तुममें हहा उठता था समुन्दर ?<br>
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तुममें हहा उठता था समुन्दर?<br>
वो ही आवाज भीड़ में खो गयी<br>
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वो ही आवाज भीड़ में खो गई<br>
जैसे आनी-जानी कोई लहर !<br>
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जैसे आनी-जानी कोई लहर!<br>
 
‘तटस्थ’ शब्द की व्युत्पत्ति<br>
 
‘तटस्थ’ शब्द की व्युत्पत्ति<br>
खूब तुमने समझायी, प्रियवर !<br><br>
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खूब तुमने समझायी, प्रियवर!<br><br>
  
 
एक बार मैंने कहा-<br>
 
एक बार मैंने कहा-<br>
‘‘बाबा, हम दूर से आयी हैं घाट पर,<br>
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‘‘बाबा, हम दूर से आई हैं घाट पर,<br>
 
खाना बनाना है, मिल नहीं रही सूखी लकड़ी,<br>
 
खाना बनाना है, मिल नहीं रही सूखी लकड़ी,<br>
आपके झोले में होगी ?<br>
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आपके झोले में होगी?<br>
 
कहते हैं लोग, आपके झोले में<br>
 
कहते हैं लोग, आपके झोले में<br>
 
बसती है सृष्टि,<br>
 
बसती है सृष्टि,<br>
दुनिया में ढूँढ़-ढाँढ़कर<br>
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दुनिया में ढूंढ़-ढांढ़कर<br>
 
आ जाते हैं सारे बेआसरा<br>
 
आ जाते हैं सारे बेआसरा<br>
 
आपके पास,<br>
 
आपके पास,<br>
 
जो चीज और कहीं नहीं मिली,<br>
 
जो चीज और कहीं नहीं मिली,<br>
 
आपके झोले में तो रामजी ने<br>
 
आपके झोले में तो रामजी ने<br>
अवश्य ही डाली होगी !’’<br>
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अवश्य ही डाली होगी!’’<br>
 
बात शायद पूरी सुनी भी नहीं,<br>
 
बात शायद पूरी सुनी भी नहीं,<br>
 
एक हाथ से आप घिसते रहे चन्दन,<br>
 
एक हाथ से आप घिसते रहे चन्दन,<br>
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जैसे थी लुटिया, आटा, बैंगन,<br>
 
जैसे थी लुटिया, आटा, बैंगन,<br>
 
धनिया, नमक की डली,<br>
 
धनिया, नमक की डली,<br>
एक-एक कर मैंने सब माँगीं<br>
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एक-एक कर मैंने सब मांगीं<br>
 
दीं आपने सर उठाये बिना,<br>
 
दीं आपने सर उठाये बिना,<br>
जैसे औरों को दीं, मुझको भी !<br><br>
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जैसे औरों को दीं, मुझको भी!<br><br>
  
 
लौट रही हूँ वापस..खुद में ही<br>
 
लौट रही हूँ वापस..खुद में ही<br>
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मैं भी समेट रही हूँ खुद को<br><br>
 
मैं भी समेट रही हूँ खुद को<br><br>
  
अपने झोले में ही !<br>
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अपने झोले में ही!<br>
 
अब निकलूँगी मैं भी<br>
 
अब निकलूँगी मैं भी<br>
अपने सन्धान में अकेली !<br>
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अपने संधान में अकेली!<br>
आपका झोला हो आपको मुबारक !<br>
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आपका झोला हो आपको मुबारक!<br>
अच्छा बाबा, राम-राम !
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अच्छा बाबा, राम-राम!

18:16, 2 मई 2008 का अवतरण

मैं रत्ना-कहते थे मुझको रतन तुलसी
रतन-मगर गूदड़ में सिला हुआ!
किसी-किसी तरह साँस लेती रही
अपने गूदड़ में
उजबुजाती-अकबकाती हुई!
सदियों तक मैंने किया इन्तज़ार-
आएगा कोई, तोड़ेगा टाँके गूदड़ के,
ले जाएगा मुझको आके!

पर तुमने तो पा लिया था अब राम-रतन,
इस रत्ना की याद आती क्यों?
‘घन-घमंड’ वाली चौपाई भी लिखते हुए
याद आई ?...नहीं आई?
‘घन-घमंड’ वाली ही थी रात वह भी
जब मैं तुमसे झगड़ी थी!
कोई जाने या नहीं जाने, मैं जानती हूँ क्यों तुमने
‘घमंड’ की पटरी ‘घन’ से बैठाई!

नैहर बस घर ही नहीं होता,
होता है नैहर अगरधत्त अंगड़ाई,
एक निश्चिन्त उबासी, एक नन्ही-सी फ़ुर्सत!
तुमने उस इत्ती-सी फ़ुर्सत पर
बोल दिया धावा
तो मेरे हे रामबोला, बमभोला-
मैंने तुम्हें डाँटा!

डाँटा तो सुन लेते
जैसे सुना करती थी मैं तुम्हारी...
पर तुमने दिशा ही बदल दी!
थोड़ी सी फुर्सत चाही थी!
फ़ुर्सत नमक ही है, चाहिए थोड़ी-सी,
तुमने तो सारा समुन्दर ही फ़ुर्सत का
सर पर पटक डाला!

रोज फींचती हूँ मैं साड़ी
कितने पटके, कितनी रगड़-झगड़-
तार-तार होकर भी
वह मुझसे रहती है सटी हुई!
अलगनी से किसी आंधी में
उड़ तो नहीं जाती!

कुछ देर को रूठ सकते थे,
ये क्या कि छोड़ चले!
क्या सिर्फ गलियों-चौबारों में मिलते हैं
राम तुम्हारे?
‘आराम’ में भी तो एक ‘राम’ है कि नहीं-
‘आराम’ जो तुमको मेरी गोदी में मिलता था?
मेरी गोदी भी अयोध्या थी, थी काशी!
तुमने कोशिश तो की होती इस काशी-करवट की!
एक ‘विनय पत्रिका’ मेरी भी तो है,
लिखी गयी थी वो समानान्तर
लेकिन बाँची नहीं गयी अब तलक!

जब कुछ सखियों ने बताया-
चित्रकूट में तुम लगाते बैठे हो तिलक
हर आने-जाने वाले को-
मैंने सोचा, मैं भी हो आऊँ,
चौंका दूँ एकदम से सामने आकर!
पर एक नन्हा-सा डर भी
पल रहा था गर्भ में मेरे,
क्या होगा जो तुम पहचान नहीं पाए
भक्तों की भीड़-भाड़ में?

आईना कहता है, बदल गया है मेरा चेहरा,
उतर गया है मेरे चेहरे का सारा नमक
नमक से नमक धुल गया है (आँखों से चेहरे का!)

आँखों के नीचे
गहरी गुफा की
हहाती हुई एक सांझ उतर आयी है!
गर्दन के नीचे के दोनों कबूतर
चोंच अपनी गड़ाकर पंख में बैठे-
काँपते हैं लगातार-
आँसू की दो बड़ी बूंदें ही अब दीखते हैं वे!

सोचती हूँ-कैसे वे लगते-
दूध की दो बड़ी बूंदें जो होते-
आँचल में होता जो कोई रामबोला-
सीधा उसके होंठ में वे टपकते!
सोचती गयी रास्ते-भर-कैसे मिलोगे!
सौत तो नहीं न बनी होगी
वो तुम्हारी रामभक्ति


एक बार नहीं, कुल सात बार
पास मैं तुम्हारे गई
सात बहाने लेकर!
देखा नहीं लेकिन एक बार भी तुमने
आँख उठाकर!
क्या मेरी आवाज़ भूल गये-
जिसकी हल्की-सी भी खुसुर-फुसुर पर
तुममें हहा उठता था समुन्दर?
वो ही आवाज भीड़ में खो गई
जैसे आनी-जानी कोई लहर!
‘तटस्थ’ शब्द की व्युत्पत्ति
खूब तुमने समझायी, प्रियवर!

एक बार मैंने कहा-
‘‘बाबा, हम दूर से आई हैं घाट पर,
खाना बनाना है, मिल नहीं रही सूखी लकड़ी,
आपके झोले में होगी?
कहते हैं लोग, आपके झोले में
बसती है सृष्टि,
दुनिया में ढूंढ़-ढांढ़कर
आ जाते हैं सारे बेआसरा
आपके पास,
जो चीज और कहीं नहीं मिली,
आपके झोले में तो रामजी ने
अवश्य ही डाली होगी!’’
बात शायद पूरी सुनी भी नहीं,
एक हाथ से आप घिसते रहे चन्दन,
दूसरे से लकड़ी मुझको दी।

सचमुच कुछ लकड़ियाँ झोले में थीं-
जैसे थी लुटिया, आटा, बैंगन,
धनिया, नमक की डली,
एक-एक कर मैंने सब मांगीं
दीं आपने सर उठाये बिना,
जैसे औरों को दीं, मुझको भी!

लौट रही हूँ वापस..खुद में ही
जैसे कि अंशुमाली शाम तक
अपने झोले में वापस
रख लेता है अपनी किरणें वे बची-खुची
कस लेता है खुद को ही
अपने झोले में वापस
मैं भी समेट रही हूँ खुद को

अपने झोले में ही!
अब निकलूँगी मैं भी
अपने संधान में अकेली!
आपका झोला हो आपको मुबारक!
अच्छा बाबा, राम-राम!