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"परम प्रेम-‌आनंदमय दिय जुगल रस-रूप / हनुमानप्रसाद पोद्दार" के अवतरणों में अंतर

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जयति जय जयति रस-भाव-जोरी।
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परम प्रेम-‌आनंदमय दिय जुगल रस-रूप।
नील घन स्याम अभिराम, मुनि-मन-हरन,   
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कालिंदी-तट कदँब-तल सुषमा अमित अनूप॥
दुति करन ज्योति राधा किसोरी।
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सुधा-मधुर-सौंदर्य-निधि छलकि रहे अँग-‌अंग।
पीत पट ललाम छबिधाम सुचि, नील-बरन,   
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उठत ललित पल-पल विपुल नव-नव रूप-तरंग॥
स्वर्न-तन राजत, डारत ठगोरी॥
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प्रगटत सतत नवीन छबि दो‌ऊ होड़ लगाय।
स्याम-छबि निरखत अनिमेष राधा सतत,   
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हार न मानत जदपि, पै दो‌ऊ रहे बिकाय॥
स्तध मनु देखि ससधर चकोरी।
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नित्य छबीली राधिका, नित छबिमय ब्रज-चंद।
 
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बिहरत बृन्दा-बिपिन दो‌उ लीला-रत स्वच्छंद॥
राधा-मुख-कमल लखि मा स्यामसुंदर-दृग- 
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भृंग रस-पान-रत अमिय घोरी॥
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सखियन अति भीर जुरी, जुगल रूप निरखन कौं, 
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रहीं सब चकित चित, तृनहि तोरी।
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राधिका-माधव द्वै लसत, मन बसत नित
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ह्वै रही प्रेमबस देह मोरी॥
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15:18, 6 जनवरी 2014 के समय का अवतरण

परम प्रेम-‌आनंदमय दिय जुगल रस-रूप।
कालिंदी-तट कदँब-तल सुषमा अमित अनूप॥
सुधा-मधुर-सौंदर्य-निधि छलकि रहे अँग-‌अंग।
उठत ललित पल-पल विपुल नव-नव रूप-तरंग॥
प्रगटत सतत नवीन छबि दो‌ऊ होड़ लगाय।
हार न मानत जदपि, पै दो‌ऊ रहे बिकाय॥
नित्य छबीली राधिका, नित छबिमय ब्रज-चंद।
बिहरत बृन्दा-बिपिन दो‌उ लीला-रत स्वच्छंद॥