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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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मुबारक़ हो नया सालदर्द की रात ढल चली है</div>
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रचनाकार: [[नागार्जुनफ़ैज़ अहमद फ़ैज़]]
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फलाँ-फलाँ इलाके में पड़ा बात बस से निकल चली है अकालखुसुर-पुसुर करते हैं, खुश हैं बनिया-बकालछ्लकती ही रहेगी हमदर्दी साँझ-सकालअनाज रहेगा खत्तियों में बन्द !दिल की हालत सँभल चली है
हड्डियों के ढेर पर अब जुनूँ हद से बढ़ चला है सफ़ेद ऊन की शाल...अब के भी बैलों की ही गलेगी दाल !पाटिल-रेड्डी-घोष बजाएँगे गाल...थामेंगे डालरी कमन्द !तबीअत बहल चली है
बत्तख हों, बगले हों, मेंढक हों, मरालअश्क ख़ूँनाब हो चले हैंपूछिए चलकर वोटरों से मिजाज का हालग़म की रंगत बदल चली हैमिला टिकट ? आपको मुबारक लाख पैग़ाम हो नया सालगये हैंजब सबा इक पल चली है जाओ, अब तो बाँटिए मित्रों में कलाकन्द !सो रहो सितारोदर्द की रात ढल चली है जुनूँ=दीवानगी; अश्क=आँसू; ख़ूँनाब=लहू के रंग
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