"क्या से क्या / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) छो (Sharda suman moved page क्या से क्या to क्या से क्या / हरिऔध) |
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | धूल में धाक मिल गई सारी। | |
− | + | ||
रह गये रोब दाब के न पते। | रह गये रोब दाब के न पते। | ||
− | |||
अब कहाँ दबदबा हमारा है। | अब कहाँ दबदबा हमारा है। | ||
− | |||
आज हैं बात बात में दबते। | आज हैं बात बात में दबते। | ||
− | आज दिन धूल है बरसती | + | आज दिन धूल है बरसती वहाँ। |
− | + | ||
हुन बरसता रहा जहाँ सब दिन। | हुन बरसता रहा जहाँ सब दिन। | ||
− | |||
तन रतन से सजे रहे जिन के। | तन रतन से सजे रहे जिन के। | ||
− | |||
बेतरह आज वे गये तन बिन। | बेतरह आज वे गये तन बिन। | ||
आज बेढंग बन गये हैं वे। | आज बेढंग बन गये हैं वे। | ||
− | + | ढंग जिन में भरे हुए कुल थे। | |
− | ढंग जिन में भरे हुए | + | बाँध सकते नहीं कमर भी वे। |
− | + | बाँधते जो समुद्र पर पुल थे। | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
जो रहे आसमान पर उड़ते। | जो रहे आसमान पर उड़ते। | ||
− | |||
आज उन के कतर गये हैं पर। | आज उन के कतर गये हैं पर। | ||
− | |||
सिर उठाना उन्हें पहाड़ हुआ। | सिर उठाना उन्हें पहाड़ हुआ। | ||
− | |||
जो उठाते पहाड़ उँगली पर। | जो उठाते पहाड़ उँगली पर। | ||
हैं रहे डूब वे गड़हियों में। | हैं रहे डूब वे गड़हियों में। | ||
− | |||
बेतरह बार बार खा धोखा। | बेतरह बार बार खा धोखा। | ||
− | |||
सूखता था समुद्र देख जिन्हें। | सूखता था समुद्र देख जिन्हें। | ||
− | |||
था जिन्होंने समुद्र को सोखा। | था जिन्होंने समुद्र को सोखा। | ||
जो सदा मारते रहे पाला। | जो सदा मारते रहे पाला। | ||
− | |||
वे पड़े टालटूल के पाले। | वे पड़े टालटूल के पाले। | ||
− | |||
आज हैं गाल मारते बैठे। | आज हैं गाल मारते बैठे। | ||
− | |||
जंगलों के ख्रगालने वाले। | जंगलों के ख्रगालने वाले। | ||
तप सहारे न क्या सके कर जो। | तप सहारे न क्या सके कर जो। | ||
− | |||
मन उन्हीं का मरा बहुत हारा। | मन उन्हीं का मरा बहुत हारा। | ||
− | |||
हैं लहू घूँट आज वे पीते। | हैं लहू घूँट आज वे पीते। | ||
− | |||
पी गये थे समुद्र जो सारा। | पी गये थे समुद्र जो सारा। | ||
सब तरह आज हार वे बैठे। | सब तरह आज हार वे बैठे। | ||
− | |||
जो कभी थे न हारने वाले। | जो कभी थे न हारने वाले। | ||
− | |||
आप हैं अब उबर नहीं पाते। | आप हैं अब उबर नहीं पाते। | ||
− | |||
स्वर्ग के भी उबारने वाले। | स्वर्ग के भी उबारने वाले। | ||
पेड़ को जो उखाड़ लेते थे। | पेड़ को जो उखाड़ लेते थे। | ||
− | |||
हैं न सकते उखाड़ वे मोथे। | हैं न सकते उखाड़ वे मोथे। | ||
− | |||
वे नहीं कूद फाँद कर पाते। | वे नहीं कूद फाँद कर पाते। | ||
− | |||
फाँद जाते समुद्र को जो थे। | फाँद जाते समुद्र को जो थे। | ||
जो जगत-जाल तोड़ देते थे। | जो जगत-जाल तोड़ देते थे। | ||
− | |||
तोड़ सकते वही नहीं जाला। | तोड़ सकते वही नहीं जाला। | ||
− | |||
वे मथे मथ दही नहीं पाते। | वे मथे मथ दही नहीं पाते। | ||
− | |||
था जिन्होंने समुद्र मथ डाला। | था जिन्होंने समुद्र मथ डाला। | ||
</poem> | </poem> |
09:09, 20 मार्च 2014 के समय का अवतरण
धूल में धाक मिल गई सारी।
रह गये रोब दाब के न पते।
अब कहाँ दबदबा हमारा है।
आज हैं बात बात में दबते।
आज दिन धूल है बरसती वहाँ।
हुन बरसता रहा जहाँ सब दिन।
तन रतन से सजे रहे जिन के।
बेतरह आज वे गये तन बिन।
आज बेढंग बन गये हैं वे।
ढंग जिन में भरे हुए कुल थे।
बाँध सकते नहीं कमर भी वे।
बाँधते जो समुद्र पर पुल थे।
जो रहे आसमान पर उड़ते।
आज उन के कतर गये हैं पर।
सिर उठाना उन्हें पहाड़ हुआ।
जो उठाते पहाड़ उँगली पर।
हैं रहे डूब वे गड़हियों में।
बेतरह बार बार खा धोखा।
सूखता था समुद्र देख जिन्हें।
था जिन्होंने समुद्र को सोखा।
जो सदा मारते रहे पाला।
वे पड़े टालटूल के पाले।
आज हैं गाल मारते बैठे।
जंगलों के ख्रगालने वाले।
तप सहारे न क्या सके कर जो।
मन उन्हीं का मरा बहुत हारा।
हैं लहू घूँट आज वे पीते।
पी गये थे समुद्र जो सारा।
सब तरह आज हार वे बैठे।
जो कभी थे न हारने वाले।
आप हैं अब उबर नहीं पाते।
स्वर्ग के भी उबारने वाले।
पेड़ को जो उखाड़ लेते थे।
हैं न सकते उखाड़ वे मोथे।
वे नहीं कूद फाँद कर पाते।
फाँद जाते समुद्र को जो थे।
जो जगत-जाल तोड़ देते थे।
तोड़ सकते वही नहीं जाला।
वे मथे मथ दही नहीं पाते।
था जिन्होंने समुद्र मथ डाला।