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"धर्म की धाक / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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है चमकता चाँद, सूरज राजता।
 
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जोत प्यारी है सितारों में भरी।
 
जोत प्यारी है सितारों में भरी।
 
 
है बिलसती लोक में उस की कला।
 
है बिलसती लोक में उस की कला।
 
 
है धुरे पर धर्म के धरती धरी।
 
है धुरे पर धर्म के धरती धरी।
  
 
धर्म - बल से जगमगाती जोत है।
 
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है धरा दल फूल फल से सोहती।
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जल बरस, बादल बनाते हैं सुखी।
 
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है हवा बहती महकती मोहती।
 
है हवा बहती महकती मोहती।
  
 
छाँह दे फूल से फबीले बन।
 
छाँह दे फूल से फबीले बन।
 
 
फल खिला है उदर भरा करता।
 
फल खिला है उदर भरा करता।
 
 
धर्म के रंग में रंगा पौधा।
 
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रह हरा चित्त है हरा करता।
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क्यों घहरते न पर - हितों से भर।
 
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हैं उन्हें धर्म - भाव बल देते।
 
हैं उन्हें धर्म - भाव बल देते।
 
 
चोटियाँ चूम चूम पेड़ों की।
 
चोटियाँ चूम चूम पेड़ों की।
 
 
मेघ हैं घूम घूम जल देते।
 
मेघ हैं घूम घूम जल देते।
  
 
धर्म - जादू न जो चला होता।
 
धर्म - जादू न जो चला होता।
 
 
तो न जल - सोत वह बहा पाता।
 
तो न जल - सोत वह बहा पाता।
 
 
किस तरह तो पसीजता पत्थर।
 
किस तरह तो पसीजता पत्थर।
 
 
क्यों पिघल दिल पहाड़ का जाता।
 
क्यों पिघल दिल पहाड़ का जाता।
  
 
लोक - हित में न जो लगे होते।
 
लोक - हित में न जो लगे होते।
 
 
किस तरह ताल पोखरे भरते।
 
किस तरह ताल पोखरे भरते।
 
 
धर्म की झार जो न रस रखती।
 
धर्म की झार जो न रस रखती।
 
 
तो न झरने सदा झरा करते।
 
तो न झरने सदा झरा करते।
  
 
है लगातार रात दिन आते।
 
है लगातार रात दिन आते।
 
 
भूलता है समय नहीं वादा।
 
भूलता है समय नहीं वादा।
 
 
धर्म - मर्याद से थमा जग है।
 
धर्म - मर्याद से थमा जग है।
 
 
है न तजता समुद्र मर्यादा।
 
है न तजता समुद्र मर्यादा।
  
 
जो न मिलती चमक दमक उस की।
 
जो न मिलती चमक दमक उस की।
 
 
तो चमकता न एक भी तारा।
 
तो चमकता न एक भी तारा।
 
 
धर्म की जोत के सहारे ही।
 
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जगमगा है रहा जगत सारा।
 
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16:43, 24 मार्च 2014 के समय का अवतरण

है चमकता चाँद, सूरज राजता।
जोत प्यारी है सितारों में भरी।
है बिलसती लोक में उस की कला।
है धुरे पर धर्म के धरती धरी।

धर्म - बल से जगमगाती जोत है।
है धरा दल फूल फल से सोहती।
जल बरस, बादल बनाते हैं सुखी।
है हवा बहती महकती मोहती।

छाँह दे फूल से फबीले बन।
फल खिला है उदर भरा करता।
धर्म के रंग में रंगा पौधा।
रह हरा चित्त है हरा करता।

क्यों घहरते न पर - हितों से भर।
हैं उन्हें धर्म - भाव बल देते।
चोटियाँ चूम चूम पेड़ों की।
मेघ हैं घूम घूम जल देते।

धर्म - जादू न जो चला होता।
तो न जल - सोत वह बहा पाता।
किस तरह तो पसीजता पत्थर।
क्यों पिघल दिल पहाड़ का जाता।

लोक - हित में न जो लगे होते।
किस तरह ताल पोखरे भरते।
धर्म की झार जो न रस रखती।
तो न झरने सदा झरा करते।

है लगातार रात दिन आते।
भूलता है समय नहीं वादा।
धर्म - मर्याद से थमा जग है।
है न तजता समुद्र मर्यादा।

जो न मिलती चमक दमक उस की।
तो चमकता न एक भी तारा।
धर्म की जोत के सहारे ही।
जगमगा है रहा जगत सारा।