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"कवि / भवानीप्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाये.
 
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फल लगें ऐसे कि सुख रस, सार और समर्थ
 
फल लगें ऐसे कि सुख रस, सार और समर्थ
प्राण- संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ.
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प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ.
  
 
टेढ़ मत पैदा करे गति तीर की अपना,
 
टेढ़ मत पैदा करे गति तीर की अपना,

17:39, 1 अप्रैल 2014 के समय का अवतरण

कलम अपनी साध
और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह.
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख.
चीज़ ऐसी दे कि स्वाद सर चढ़ जाये
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाये.
फल लगें ऐसे कि सुख रस, सार और समर्थ
प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ.

टेढ़ मत पैदा करे गति तीर की अपना,
पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना.
विन्ध्य, रेवा, फूल, फल, बरसात या गरमी,
प्यार प्रिय का, कष्ट-कारा, क्रोध या नरमी,
देश या कि विदेश, मेरा हो कि तेरा हो..
हो विशेद विस्तार, चाहे एक घेरा हो,
तू जिसे छु दे दिशा दिशा कल्याण हो उसकी,
तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी.