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+ | हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार । | ||
+ | श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥ 901 ॥ | ||
− | + | या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत । | |
+ | गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ॥ 902 ॥ | ||
− | + | कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर । | |
− | + | खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर ॥ 903 ॥ | |
− | + | सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान । | |
− | + | निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥ 904 ॥ | |
− | + | घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए। | |
− | + | हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥ 905 ॥ | |
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+ | क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा। | ||
+ | जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥ 906 ॥ | ||
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+ | कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ | | ||
+ | ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ ||907|| | ||
+ | |||
+ | प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय | | ||
+ | राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ||908|| | ||
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+ | माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर | | ||
+ | कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर ||909|| | ||
+ | |||
+ | माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर | | ||
+ | आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ||910|| | ||
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+ | झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद | | ||
+ | खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ||911|| | ||
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+ | वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर | | ||
+ | परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर ||912|| | ||
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+ | साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय | | ||
+ | तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय ||913|| | ||
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+ | सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार | | ||
+ | दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार ||914|| | ||
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+ | जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं | | ||
+ | ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं ||915|| | ||
+ | |||
+ | मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ | | ||
+ | कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ||916|| | ||
+ | |||
+ | तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय | | ||
+ | कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय ||917|| | ||
+ | |||
+ | बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि | | ||
+ | हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि ||918|| | ||
+ | |||
+ | ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय | | ||
+ | औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ||919|| | ||
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+ | लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी | | ||
+ | चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी ||920|| | ||
+ | |||
+ | निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय | | ||
+ | बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय ||921|| | ||
+ | |||
+ | मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं | | ||
+ | मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं ||922|| |
11:27, 20 अप्रैल 2014 के समय का अवतरण
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हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार ।
श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥ 901 ॥
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ॥ 902 ॥
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर ।
खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर ॥ 903 ॥
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान ।
निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥ 904 ॥
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥ 905 ॥
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥ 906 ॥
कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ |
ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ ||907||
प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय |
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ||908||
माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर |
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर ||909||
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर |
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ||910||
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद |
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ||911||
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर |
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर ||912||
साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय |
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय ||913||
सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार |
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार ||914||
जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं |
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं ||915||
मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ |
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ||916||
तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय |
कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय ||917||
बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि |
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि ||918||
ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ||919||
लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी |
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी ||920||
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय |
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय ||921||
मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं |
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं ||922||