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"आमुख / राजेन्द्र जोशी" के अवतरणों में अंतर

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बिन बुलाए मेहमान की तरह
 
बिन बुलाए मेहमान की तरह
 
सपने, सपना बनकर !
 
सपने, सपना बनकर !
अस्तु, श्री राजेन्द्र जोशी के इस संग्रह से गुजरना उनके व्यक्तित्व के एक अत्यन्त पावन अन्तरंग और निजी पक्ष से प्रतिकृत होने की तरह है। उनका यह पक्ष और उन्नत हो, वे इसके अनन्त का संधान कर कुछ और ऊँची उड़ाने भरें और काव्य-जगत में उनका जोरदार स्वागत हो - इस घड़ी यही मंगलकामनाएं करना चाहता हँू।
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अस्तु, श्री राजेन्द्र जोशी के इस संग्रह से गुजरना उनके व्यक्तित्व के एक अत्यन्त पावन अन्तरंग और निजी पक्ष से प्रतिकृत होने की तरह है। उनका यह पक्ष और उन्नत हो, वे इसके अनन्त का संधान कर कुछ और ऊँची उड़ाने भरें और काव्य-जगत में उनका जोरदार स्वागत हो - इस घड़ी यही मंगलकामनाएं करना चाहता हूँ।
  
 
- '''मालचन्द तिवाड़ी''' </poem>
 
- '''मालचन्द तिवाड़ी''' </poem>

15:55, 12 मई 2014 के समय का अवतरण

मौन से बतकही : कोलाहल का अंतरंग

जाने-माने सामाजिक कार्यकर्त्ता और साक्षरताकर्मी श्री राजेन्द्र जोशी लम्बे अन्तराल से कविताएं भी लिखते रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व श्री जोशी का एक काव्य संकलन “सब के साथ मिल जाएगा” शीर्षक से प्रकाशित भी हुआ था। जाहिर है, जोशी के यहां अपने कवि-कर्म को लेकर कोई बड़बोला दावा अथवा कोई दुर्विनीत आग्रह नहीं हैं। उनके संवेदनशील मन की प्रतीतियां अपना रूपाकार खोजती हुईं कागज पर उतरती हैं तो स्वाभाविक सी कुछ लय-सरंचनाएं भाषा में निबद्व होकर कविता का भेस धारण कर लेती हैं। यह स्वाभाविकता इन कविताओं की शक्ति भी है और सीमा भी। चंूकि श्री जोशी एक सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं, इसलिए उनकी काव्य-भाषा में भी और उसमें अन्तर्निहित संवेदना में भी एक खास तरह का सरल और निष्कपट-सा सामाजिक सरोकार हमेशा गूंजता सुनाई पड़ता है।
यह अकारण नहीं है कि जोशी ने अनेक सामाजिक विषयों पर कविताएं लिखी हैं, लेकिन उनकी स्त्री को सम्बोधित अथवा कहें प्रेम-कविताओं में भी स्त्री की सामाजिक नियति से उपजी व्यथा का विस्मरण वे कभी नहीं करते। इस दृष्टि से उनकी ‘खोजना अपने होने को’ कविता विशेष रूप से दृष्टव्य है:
कब मिलेगी आजादी
थिरकन है तुम्हारें पांवों में
और ऊर्जा देह में
शिथिल नहीं हो
सम्भलकर चलती हो
कहीं सच यह तो नहीं
कि तुम आजादी चाहती ही नहीं
जकड़ी जा चुकी हो
मेरी बेड़ियों में
मुझे पता है
तुम बंधन को
अपनेपन में बदल चुकी हो
इसमें भी शायद
खोज लेती हो
अपने होने को
इस संग्रह की कई एक कविताओं में एक बड़ी आकर्षक मगर अबोध-सी प्रश्नाकुलता है, जो दार्शनिक जिज्ञासाओं जैसी जान पड़ती है। जोशी ने इन्हें अपने सहज लहजे में भले ही कुछ गुंफित-सा दर्ज कर छोड़ा हो, लेकिन ये प्रतीतियां इशारा करती हैं कि वे अपने आत्यन्तिक बहिर्मुखी व्यक्तित्व में एक एकान्त भी संजोये हुए हैं और कहना न होगा, मनुष्य के व्यक्तित्व के इसी निविड़ एकान्त में कविता का घर हुआ करता है। उनकी ‘ सपना ’ शीर्षक से लिखी गई एकाधिक कविताओं को इस नजर से देखा जा सकता है:
सपना- 1

सपना
क्यों समा जाता है
नींद में
क्यों बनाता दूरी
सच्चाई से
मेरा सपना
तलाश सपने की
मुझे नहीं
उसको है
जो नींद में समाता है

इस लिहाज से उनकी ‘सपना- 7’ कविता भी दिलचस्प जान पड़ती है:
सपना- 7
 
किसी का सपना बनने से पहले
सपना क्यों नहीं सोचता
क्या कहना चाहता है
किसी की नींद में जाकर
गहरी नींद में
नींद किसी की अपनी है
उसकी तो नहीं
अरे ! फिर आ गया तू
बिन बुलाए मेहमान की तरह
सपने, सपना बनकर !
अस्तु, श्री राजेन्द्र जोशी के इस संग्रह से गुजरना उनके व्यक्तित्व के एक अत्यन्त पावन अन्तरंग और निजी पक्ष से प्रतिकृत होने की तरह है। उनका यह पक्ष और उन्नत हो, वे इसके अनन्त का संधान कर कुछ और ऊँची उड़ाने भरें और काव्य-जगत में उनका जोरदार स्वागत हो - इस घड़ी यही मंगलकामनाएं करना चाहता हूँ।

- मालचन्द तिवाड़ी