{{KKRachna
|रचनाकार=रहीम
|अनुवादक=
|संग्रह=रहीम दोहावली
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[[Category:दोहे]]{{KKCatDoha}}<poem>उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान । <BR/>बिदिसान। सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥ 401 ॥ <BR/><BR/>पयान॥401॥
समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम । <BR/>झूम। बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम ॥ 402 ॥ <BR/><BR/>धूम॥402॥
उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर । <BR/>बलवीर। मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर ॥ 403 ॥ <BR/><BR/>तीर॥403॥
सुगमहि गातहि गारन, जारन देह । <BR/>देह। अगम महा अति पारन, सुघर सनेह ॥ 404 ॥ <BR/><BR/>सनेह॥404॥
मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार । <BR/>बेरिझबार। बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार ॥ 405 ॥ <BR/><BR/>विचार॥405॥
झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह । <BR/>मेह। त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह ॥ 406 ॥ <BR/><BR/>झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात । <BR/>फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ॥ 407 ॥ <BR/><BR/>देह॥406॥
डोलत त्रिबिध मरुतवाझूँठी झूँठी सौंहे, सुखद सुढार । <BR/>हरि बिन लागब सजनीनित खात। फिर जब मिलत मरू के, जिमि तरवार ॥ 408 ॥ <BR/><BR/>उतर बतात॥407॥
कहियो पथिक संदेसवाडोलत त्रिबिध मरुतवा, गहि के पाय । <BR/>सुखद सुढार। मोहन तुम हरि बिन तनिकहु रह्यौ न जाय ॥ 409 ॥ <BR/><BR/>लागब सजनी, जिमि तरवार॥408॥
जबते आयौ सजनीकहियो पथिक संदेसवा, मास असाढ़ । <BR/>गहि के पाय। जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़ ॥ 410 ॥ <BR/><BR/>मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय॥409॥
मनमोहन बिन तिय केजबते आयौ सजनी, हिय दुख बाढ़ । <BR/>मास असाढ़। आये नन्द दिठनवाजानी सखि वा तिन के, लगत असाढ़ ॥ 411 ॥ <BR/><BR/>हिम की गाढ़॥410॥
वेद पुरान बखानतमनमोहन बिन तिय के, अधम उधार । <BR/>हिय दुख बाढ़। केहि कारन करूनानिधिआये नन्द दिठनवा, करत विचार ॥ 412 ॥ <BR/><BR/>लगत असाढ़॥411॥
लगत असाढ़ कहत होवेद पुरान बखानत, चलन किसोंर । <BR/>अधम उधार। घन घुमड़े चहुँ औरनकेहि कारन करूनानिधि, नाचत मोर ॥ 413 ॥ <BR/><BR/>करत विचार॥412॥
लखि पावस ॠतु सजनीलगत असाढ़ कहत हो, पिय परदेस । <BR/>चलन किसोंर। गहन लग्यौ अबलनि पैघन घुमड़े चहुँ औरन, धनुष सुरेस ॥ 414 ॥ <BR/><BR/>नाचत मोर॥413॥
बिरह बढ्यौ सखि अंगनलखि पावस ॠतु सजनी, बढ्यौ चवाव । <BR/>पिय परदेस। करयो निठुर नन्दनन्दनगहन लग्यौ अबलनि पै, कौन कुदाव ॥ 415 ॥ <BR/><BR/>धनुष सुरेस॥414॥
भज्यो कितौ न जनम भरिबिरह बढ्यौ सखि अंगन, कितनी जाग । <BR/>बढ्यौ चवाव। संग रहत या तन कीकरयो निठुर नन्दनन्दन, छाँही भाग ॥ 416 ॥ <BR/><BR/>कौन कुदाव॥415॥
भज र मन नन्दनन्दनभज्यो कितौ न जनम भरि, विपति बिदार । <BR/>कितनी जाग। गोपी-जन-मन-रंजनसंग रहत या तन की, परम उदार ॥ 417 ॥ <BR/><BR/>जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग । <BR/>हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ॥ 418 ॥ <BR/><BR/>छाँही भाग॥416॥
भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार। गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार॥417॥जदपि भई जल पूरितबसत हैं सजनी, छितव सुआस । <BR/>लाखन लोग। स्वाति बूँद हरि बिन चातककित यह चित को, मरत-पियास ॥ 419 ॥ <BR/><BR/>सुख संजोग॥418॥
देखन ही को निसदिनजदपि भई जल पूरित, तरफत देह । <BR/>छितव सुआस। यही होत मधुसूदनस्वाति बूँद बिन चातक, पूरन नेह ॥ 420 ॥ <BR/><BR/>मरत-पियास॥419॥
कब तें देखत सजनीदेखन ही को निसदिन, बरसत मेह । <BR/>तरफत देह। गनत न चढ़े अटन पैयही होत मधुसूदन, सने सनेह ॥ 421 ॥ <BR/><BR/>पूरन नेह॥420॥
विरह विथा कब तें लखियतदेखत सजनी, मरिबौं झूरि । <BR/>बरसत मेह। जो नहिं मिलिहै मोहनगनत न चढ़े अटन पै, जीवन मूरि ॥ 422 ॥ <BR/><BR/>सने सनेह॥421॥
उधौं भलौ न कहनौविरह विथा तें लखियत, कछु पर पूठि । <BR/>मरिबौं झूरि। साँचे ते भे झूठेजो नहिं मिलिहै मोहन, साँची झूठि ॥ 423 ॥ <BR/><BR/>जीवन मूरि॥422॥
भादों निस अँधियरियाउधौं भलौ न कहनौ, घर अँधियार । <BR/>कछु पर पूठि। बिसरयो सुघर बटोहीसाँचे ते भे झूठे, शिव आगार ॥ 424 ॥ <BR/><BR/>साँची झूठि॥423॥
हौं लखिहौ री सजनीभादों निस अँधियरिया, चौथ मयंक । <BR/>घर अँधियार। देखों केहि बिधि हरि सोंबिसरयो सुघर बटोही, लगत कलंक ॥ 425 ॥ <BR/><BR/>शिव आगार॥424॥
इन बातन कछु होत नहौं लखिहौ री सजनी, कहो हजार । <BR/>चौथ मयंक। सबही तैं हँसि बोलतदेखों केहि बिधि हरि सों, नन्दकुमार ॥ 426 ॥ <BR/><BR/>लगत कलंक॥425॥
कहा छलत को ऊधौइन बातन कछु होत न, दै परतीति । <BR/>कहो हजार। सपनेहूं नहिं बिसरैसबही तैं हँसि बोलत, मोहनि-मीति ॥ 427 ॥ <BR/><BR/>नन्दकुमार॥426॥
बन उपवन गिरि सरिताकहा छलत को ऊधौ, जिती कठोर । <BR/>दै परतीति। लगत देह से बिछुरेसपनेहूं नहिं बिसरै, नन्द किसोर ॥ 428 ॥ <BR/><BR/>भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि । <BR/>कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि ॥ 429 ॥ <BR/><BR/>मोहनि-मीति॥427॥
अदिहि-ते सब छुटगोबन उपवन गिरि सरिता, जग व्यौहार । <BR/>जिती कठोर। लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर॥428॥भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि। ऊधो अब न तिनौं भरिकैसे आवन कीनहु, रही उधार ॥ 430 ॥ <BR/><BR/>हौं बलिहारि॥429॥
घेर रह्यौ दिन रतियाँअदिहि-ते सब छुटगो, विरह बलाय । <BR/>जग व्यौहार। मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय ॥ 431 ॥ <BR/><BR/>अब न तिनौं भरि, रही उधार॥430॥
नर नारी मतवारीघेर रह्यौ दिन रतियाँ, अचरज नाहिं । <BR/>विरह बलाय। होत विटपहू नागौमोहन की वह बतियाँ, फागुन माहि ॥ 432 ॥ <BR/><BR/>ऊधो हाय॥431॥
सहज हँसोई बातेंनर नारी मतवारी, होत चवाइ । <BR/>अचरज नाहिं। मोहन कों तन सजनीहोत विटपहू नागौ, दै समुझाइ ॥ 433 ॥ <BR/><BR/>फागुन माहि॥432॥
ज्यों चौरसी लख मेंसहज हँसोई बातें, मानुष देह । <BR/>होत चवाइ। त्योंही दुर्लभ जग मेंमोहन कों तन सजनी, सहज सनेह ॥ 434 ॥ <BR/><BR/>दै समुझाइ॥433॥
मानुष तन अति दुर्लभज्यों चौरसी लख में, सहजहि पाय । <BR/>मानुष देह। हरि-भजि कर संत संगतित्योंही दुर्लभ जग में, कह्यौ जताय ॥ 435 ॥ <BR/><BR/>सहज सनेह॥434॥
मानुष तन अति अदभुत छबि- सागरदुर्लभ, मोहनसहजहि पाय। हरि-गात । <BR/>देखत ही सखि बूड़तभजि कर संत संगति, दृग-जलजात ॥ 436 ॥ <BR/><BR/>कह्यौ जताय॥435॥
निरमोंही अति झूँठौअदभुत छबि- सागर, साँवर गात । <BR/>मोहन-गात। चुभ्यौ रहत चित कौधौंदेखत ही सखि बूड़त, जानि न जात ॥ 437 ॥ <BR/><BR/>दृग-जलजात॥436॥
बिन देखें कल नाहिननिरमोंही अति झूँठौ, यह अखियान । <BR/>साँवर गात। पल-पल कटत कलप सोंचुभ्यौ रहत चित कौधौं, अहो सुजान ॥ 438 ॥ <BR/><BR/>जानि न जात॥437॥
जब तब मोहन झूठीबिन देखें कल नाहिन, सौंहें खात । <BR/>यह अखियान। इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ॥ 439 ॥ <BR/><BR/>ब्रजपल-बासिन के मोहन, जीवन प्रान । <BR/>ऊधो यह संदेसवापल कटत कलप सों, अहक कहान ॥ 440 ॥ <BR/><BR/>अहो सुजान॥438॥
मोहि मीत बिन देखेंजब तब मोहन झूठी, छिन न सुहात । <BR/>सौंहें खात। पल पल भरि भरि उलझतइन बातन ही प्यारे, दृग जल जात ॥ 441 ॥ <BR/><BR/>चतुर कहात॥439॥ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान। ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान॥440॥
जब तें बिछरे मितवामोहि मीत बिन देखें, कहु कस चैन । <BR/>छिन न सुहात। रहत भरयौ हिय साँसनपल पल भरि भरि उलझत, आँसुन नैन ॥ 442 ॥ <BR/><BR/>दृग जल जात॥441॥
कैसे जावत कोऊजब तें बिछरे मितवा, दूरि बसाय । <BR/>कहु कस चैन। पल अन्तरहूं सजनीरहत भरयौ हिय साँसन, रह्यो न जाय ॥ 443 ॥ <BR/><BR/>आँसुन नैन॥442॥
जान कहत हो ऊधौकैसे जावत कोऊ, अवधि बताइ । <BR/>दूरि बसाय। अवधि अवधि-लौं दुस्तरपल अन्तरहूं सजनी, परत लखाइ ॥ 444 ॥ <BR/><BR/>रह्यो न जाय॥443॥
मिलनि न बनि है भाखतजान कहत हो ऊधौ, इन इक टूक । <BR/>अवधि बताइ। भये सुनत ही हिय केअवधि अवधि-लौं दुस्तर, अगनित टूक ॥ 445 ॥ <BR/><BR/>परत लखाइ॥444॥
गये हरि हरि सजनीमिलनि न बनि है भाखत, बिहँसि कछूक । <BR/>इन इक टूक। तबते लगनि अगनि कीभये सुनत ही हिय के, उठत भभूक ॥ 446 ॥ <BR/><BR/>अगनित टूक॥445॥
होरी पूजत गये हरि हरि सजनी, जुर नर नारि । <BR/>बिहँसि कछूक। जरि-बिन जानहु जिय मेंतबते लगनि अगनि की, दई दवारि ॥ 447 ॥ <BR/><BR/>उठत भभूक॥446॥
दिस बिदसान करत ज्योंहोरी पूजत सजनी, कोयल कू । <BR/>जुर नर नारि। चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय जरि-बिन जानहु जिय में हूक ॥ 448 ॥ <BR/><BR/>, दई दवारि॥447॥
जबते मोहन बिछुरेदिस बिदसान करत ज्यों, कछु सुधि नाहिं । <BR/>कोयल कू। रहे प्रान परि पलकनिचतुर उठत है त्यों त्यों, दृग मग माहिं ॥ 449 ॥ <BR/><BR/>हिय में हूक॥448॥
उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार । <BR/>जब ते जबते मोहन बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार ॥ 450 ॥ <BR/><BR/>मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान । <BR/>कछु सुधि नाहिं। हिय कठोर कीजत पैरहे प्रान परि पलकनि, खटकत आन ॥ 451 ॥ <BR/><BR/>दृग मग माहिं॥449॥
जक न परत बिन हेरेउझिक उझिक चित दिन दिन, सखिन सरोस । <BR/>हेरत द्वार। हरि न मिलत बसि नेरेजब ते बिछुरे सजनी, यह अफसोस ॥ 452 ॥ <BR/><BR/>नेन्द्कुमार॥450॥मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान। हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन॥451॥
चतुर मया करि मिलिहौंजक न परत बिन हेरे, तुरतहिं आय । <BR/>सखिन सरोस। बिन देखे निस बासरहरि न मिलत बसि नेरे, तरफत जाय ॥ 453 ॥ <BR/><BR/>यह अफसोस॥452॥
तुम सब भाँतिन चतुरेचतुर मया करि मिलिहौं, यह कल बात । <BR/>तुरतहिं आय। होरि के त्यौहारनबिन देखे निस बासर, पीहर जात ॥ 454 ॥ <BR/><BR/>तरफत जाय॥453॥
और कहा हरि कहियेतुम सब भाँतिन चतुरे, चनि यह नेह । <BR/>कल बात। देखन ही को निसदिनहोरि के त्यौहारन, तरफत देह ॥ 455 ॥ <BR/><BR/>पीहर जात॥454॥
जब तें बिछुरे मोहनऔर कहा हरि कहिये, भूख न प्यास । <BR/>चनि यह नेह। बेरि बेरि बढ़ि आवतदेखन ही को निसदिन, बड़े उसास ॥ 456 ॥ <BR/><BR/>तरफत देह॥455॥
अन्तरग्त हिय बेधतजब तें बिछुरे मोहन, छेदत प्रान । <BR/>भूख न प्यास। विष सम परम सबन तेंबेरि बेरि बढ़ि आवत, लोचन बान ॥ 457 ॥ <BR/><BR/>बड़े उसास॥456॥
गली अँधेदी मिल कैअन्तरग्त हिय बेधत, रहि चुपचाप । <BR/>छेदत प्रान। बरजोरी मनमोहनविष सम परम सबन तें, करत मिलाप ॥ 458 ॥ <BR/><BR/>लोचन बान॥457॥
सास ननद गुरु पुरजनगली अँधेदी मिल कै, रहे रिसाय । <BR/>रहि चुपचाप। मोहन हू अस निसरेबरजोरी मनमोहन, हे सखि हाय ॥ 459 ॥ <BR/><BR/>करत मिलाप॥458॥
उन बिन कौन निबाहैसास ननद गुरु पुरजन, हित की लाज । <BR/>रहे रिसाय। ऊधो तुमहू कहियोमोहन हू अस निसरे, धनि बृजराज ॥ 460 ॥ <BR/><BR/>हे सखि हाय॥459॥
जिहिके लिये जगत में, बजै निसान । <BR/>तिहिं-ते करे अबोलन, उन बिन कौन सयान ॥ 461 ॥ <BR/><BR/>रे मन भज निस वासरनिबाहै, श्री बलवीर । <BR/>हित की लाज। जो बिन जाँचे टारतऊधो तुमहू कहियो, जन की पीर ॥ 462 ॥ <BR/><BR/>धनि बृजराज॥460॥
विरहिन को सब भाखतजिहिके लिये जगत में, अब जनि रोय । <BR/>बजै निसान। पीर पराई जानैतिहिं-ते करे अबोलन, तब कहु कोय ॥ 463 ॥ <BR/><BR/>कौन सयान॥461॥रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर। जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर॥462॥
सबै कहत हरि बिछुरेविरहिन को सब भाखत, उर धर धीर । <BR/>अब जनि रोय। बौरी बाँझ न पीर पराई जानै, ब्यावर पीर ॥ 464 ॥ <BR/><BR/>तब कहु कोय॥463॥
लखि मोहन की बंसीसबै कहत हरि बिछुरे, बंसी जान । <BR/>उर धर धीर। लागत मधुर प्रथम पैबौरी बाँझ न जानै, बेधत प्रान ॥ 465 ॥ <BR/><BR/>ब्यावर पीर॥464॥
तै चंचल चित हरि कौलखि मोहन की बंसी, लियौ चुराइ । <BR/>बंसी जान। याहीं तें दुचती सीलागत मधुर प्रथम पै, परत लखाई ॥ 466 ॥ <BR/><BR/>बेधत प्रान॥465॥
मी गुजरद है दिलरातै चंचल चित हरि कौ, बे दिलदार । <BR/>लियौ चुराइ। इक इक साअत हमचूँयाहीं तें दुचती सी, साल हजार ॥ 467 ॥ <BR/><BR/>परत लखाई॥466॥
नव नागर पद परसीमी गुजरद है दिलरा, फूलत जौन । <BR/>बे दिलदार। मेटत सोक असोक सुइक इक साअत हमचूँ, अचरज कौन ॥ 468 ॥ <BR/><BR/>साल हजार॥467॥
समुझि मधुप कोकिल कीनव नागर पद परसी, यह रस रीति । <BR/>फूलत जौन। सुनहू श्याम की सजनीमेटत सोक असोक सु, का परतीति ॥ 469 ॥ <BR/><BR/>अचरज कौन॥468॥
नृप जोगी सब जानतसमुझि मधुप कोकिल की, होत बयार । <BR/>यह रस रीति। संदेसन तौ राखतसुनहू श्याम की सजनी, हरि ब्यौहार ॥ 470 ॥ <BR/><BR/>का परतीति॥469॥
मोहन जीवन प्यारेनृप जोगी सब जानत, कस हित कीन । <BR/>होत बयार। दरसन ही कों तरफतसंदेसन तौ राखत, ये दृग मीन ॥ 471 ॥ <BR/><BR/>हरि ब्यौहार॥470॥
भजि मन राम सियापतिमोहन जीवन प्यारे, रघुकुल ईस । <BR/>कस हित कीन। दीनबन्धु दुख टारनदरसन ही कों तरफत, कौसलधीस ॥ 472 ॥ <BR/><BR/>गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार । <BR/>बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार ॥ 473 ॥ <BR/><BR/>ये दृग मीन॥471॥
दिलबर जद बर जिगरमभजि मन राम सियापति, तीर निगाह । <BR/>रघुकुल ईस। तपीदा जाँ भी आयददीनबन्धु दुख टारन, हरदम आह ॥ 474 ॥ <BR/><BR/>कौसलधीस॥472॥गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार। बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार॥473॥
लोग लुगाई हिलमिलदिलबर जद बर जिगरम, खेतल फाग । <BR/>तीर निगाह। परयौ उड़ावन मौकौंतपीदा जाँ भी आयद, सब दिन काग ॥ 475 ॥ <BR/><BR/>हरदम आह॥474॥
मो जिय कोरी सिगरीलोग लुगाई हिलमिल, ननद जिठानि । <BR/>खेतल फाग। भई स्याम सों तब तेंपरयौ उड़ावन मौकौं, तनक पिछानि ॥ 476 ॥ <BR/><BR/>सब दिन काग॥475॥
होत विकल अनलेखैमो जिय कोरी सिगरी, सुधर कहाय । <BR/>ननद जिठानि। को सुख पावत सजनीभई स्याम सों तब तें, नेह लगाय ॥ 477 ॥ <BR/><BR/>तनक पिछानि॥476॥
अहो सुधाधर प्यारेहोत विकल अनलेखै, नेह निचोर । <BR/>सुधर कहाय। देखन ही कों तरसेको सुख पावत सजनी, नैन चकोर ॥ 478 ॥ <BR/><BR/>नेह लगाय॥477॥
आँखिन देखत सबहीअहो सुधाधर प्यारे, कहत सुधारि । <BR/>नेह निचोर। पै जग साँची प्रीत नदेखन ही कों तरसे, चातक टारि ॥ 479 ॥ <BR/><BR/>नैन चकोर॥478॥
पथिक आय पनघटवाआँखिन देखत सबही, कहता पियाव । <BR/>कहत सुधारि। पैया परों ननदियापै जग साँची प्रीत न, फेरि कहाव ॥ 480 ॥ <BR/><BR/>चातक टारि॥479॥
या झर में घर घर मेंपथिक आय पनघटवा, मदन हिलोर । <BR/>कहता पियाव। पिय नहिं अपने कर मेंपैया परों ननदिया, करमैं खोर ॥ 481 ॥ <BR/><BR/>फेरि कहाव॥480॥
या झर में घर घर में, मदन हिलोर। पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर॥481॥ बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि । <BR/>पानि। हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि ॥ 482 ॥ <BR/>बिलगानि॥482॥<BR/poem>