{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=सूरदास}} {{KKCatPad}}<poem>राग विहाग भाव भगति है जाकें <BR/>रास रस लीला गाइ सुनाऊं। <BR/>यह जस कहै सुनै मुख स्त्रवननि तिहि चरनन सिर नाऊं॥ <BR/>कहा कहौं बक्ता स्त्रोता फल इक रसना क्यों गाऊं। <BR/>अष्टसिद्धि नवनिधि सुख संपति लघुता करि दरसाऊं॥ <BR/>हरि जन दरस हरिहिं सम बूझै अंतर निकट हैं ताकें। <BR/>सूर धन्य तिहिं के पितु माता भाव भगति है जाकें॥ <BR/> <BR/>भावार्थ: विहाग राग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते हैं कि मेरा मन चाहता है कि मैं भगवान् श्रीकृष्ण की रसीली रास लीलाओं का नित्य ही गान करूं। जो लोग भक्तिभाव से कृष्ण लीलाओं को सुनते हैं तथा अन्य लोगों को भी सुनाते हैं उनके चरणों में मैं शीश झुकाऊं। वक्ता व श्रोता अर्थात् कृष्ण लीलाओं का गान करने व अन्य को सुनाने के फल का मैं और क्या वर्णन करूं। इन सबका फल एक जैसा ही होता है। तब फिर इस जिह्वा से क्यों न कृष्ण लीलाओं का गान किया जाए। जो दीनभाव से इसका गान करता है, उसे अष्टसिद्धि व नव निधियां तथा सभी तरह की सुख-संपत्ति प्राप्त होती है। जिनका मन निर्मल है या जो हरिभक्त हैं, वह सबमें ही हरि स्वरूप देखते हैं। सूरदास कहते हैं कि वे माता-पिता धन्य हैं जिनकी संतानों में हरिभक्ति का भाव विद्यमान है।</poem>