"कभी न दिखेगा / लक्ष्मीकान्त मुकुल" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीकान्त मुकुल |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 21: | पंक्ति 21: | ||
ठीक धरती के किनारों पर | ठीक धरती के किनारों पर | ||
उठे काले बनैले हाथी | उठे काले बनैले हाथी | ||
− | चले आ रहे थे | + | चले आ रहे थे इधर ही |
कोई घूर रहा था बादलों के बीच | कोई घूर रहा था बादलों के बीच | ||
मेमने का मासूम चेहरा | मेमने का मासूम चेहरा | ||
पंक्ति 36: | पंक्ति 36: | ||
पिफर मेरा घर-बार | पिफर मेरा घर-बार | ||
दह जायेगी मां की पराती धुनें | दह जायेगी मां की पराती धुनें | ||
− | छठ का | + | छठ का फलसूप, कोपड़ फूटता बांस |
फिर भी न दिखेगा तुम्हारी नींद में। | फिर भी न दिखेगा तुम्हारी नींद में। | ||
</poem> | </poem> |
14:15, 29 जून 2014 के समय का अवतरण
ताबड़तोड़ टकरा रहे थे
कुछ पत्थर
सामने बहती नदी की धर में
उठती लहरें
हिलकोरे लेती
चली आती झलांसें की ओर
खेत पट नहीं पाया था
पट गई फिर फसलें
बुढ़िया आंधी की आग में
उदास थे हम
कुम्हलाये हुए दूबों की तरह
सन-सन बह रही थी हवाएं
ठीक धरती के किनारों पर
उठे काले बनैले हाथी
चले आ रहे थे इधर ही
कोई घूर रहा था बादलों के बीच
मेमने का मासूम चेहरा
दहकता परास-वन
झवांता जा रहा था
कुएं की जगत की ओर बढ़ता हुआ
जहां कठघोड़वा खेलता नन्हका
खो जाता नानी की कहानियों में
बबुरंगों से बचते-बचते
नदी टेढ़ बांगुच हो जाती
गांव से सटी हुई
पफैल जायेगा गलियों में ठेहुना भर पानी
उब डूब होने लगेगा
पिफर मेरा घर-बार
दह जायेगी मां की पराती धुनें
छठ का फलसूप, कोपड़ फूटता बांस
फिर भी न दिखेगा तुम्हारी नींद में।