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समोसे / वीरेन डंगवाल

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हलवाई की दुकान में घुसते ही दीखे
 
कढाई में सननानाते समोसे
 
बेंच पर सीला हुआ मैल था एक इंच
 मेज पर मिक्खयांमक्खियाँ 
चाय के जूठे गिलास
 
बड़े झन्ने से लचक के साथ
 
समोसे समेटता कारीगर था
 
दो बार निथारे उसने झन्न -फन्न
 
यह दरअसल उसकी कलाकार इतराहट थी
 
तमतमाये समोसों के सौन्दर्य पर
 
दाद पाने की इच्छा से पैदा
मूर्खता से फैलाये मैंने तारीफ में होंटहोंठ 
कानों तलक
 
कौन होगा अभागा इस क्षण
 
जिसके मन में नहीं आयेगी एक बार भी
 
समोसा खाने की इच्छा ।
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