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"ज़िन्दगी / देवेन्द्र सैफ़ी" के अवतरणों में अंतर

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»  ज़िन्दगी


ज़िन्दगी
मुझे उस औरत जैसी लगी
जिसने चढ़ती उम्र में
'मरियम' बनने का सपना देखा हो।

फिर पूरी जवानी
जिसने मर्द बदलने में बिता दी
और अब बूढ़ी होकर
एक कोने में टूटी हुई चारपाई पर लेटी
तिनके से धरती पर लकीरें खींचती
जवानी में बदले हुए मर्दों के नाम गिनती
शर्मसार हो रही है !

ज़िन्दगी
मुझे उस आदमी जैसी लगी
जो 'हीर की चूरी' की तलाश में निकला
और राह में ठोकरें खाते-खाते
बेहोश हो गया
फिर होश आने पर
ख़ुद को उसने वेश्या की सीढ़ियों पर पाया