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(''''राजेश रेड्डी''' www.kavitakosh.org/rajeshreddy ==जन्म== : 22 जुलाई 1952 उप...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
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==जन्म==
 
==जन्म==
: 22 जुलाई 1952  
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22 जुलाई 1952  
 
    
 
    
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==जन्म स्थान==
उपनाम 
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नागपुर, [[राजस्थान]], भारत  
जन्म स्थान जयपुर, [[राजस्थान]], भारत  
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कुछ प्रमुख
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==शिक्षा==
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हिन्दी साहित्य में परास्नातक
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==कृतियाँ==
 
==कृतियाँ==
 
उड़ान, आसमां से आगे  
 
उड़ान, आसमां से आगे  
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==पुरस्कार==
 
==पुरस्कार==
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डॉ. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान
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==संपादन==
 
==संपादन==
==अनुवाद==
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राजस्थान पत्रिका
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==सम्पर्क==
 
==सम्पर्क==
==निवेदन ==
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ए-403, सिल्वर मिस्ट,
यदि आपके पास अन्य विवरण् उपलब्ध है तो कृपया [[कविता कोश टीम]] को भेजें
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निकट- अमरनाथ टावर
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आफ़ यारी रोड, संजीव एन्क्लेव लेन
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7 बंग्लाज़, अंधेरी(पश्चिम)
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मुंबई- 400 061
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दूरभाष : 098215 47425
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ई-मेल :rreddy@arenamobile.com
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==आलेख==
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<poem>
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हिन्दुस्तान में जब ग़ज़ल इरान से आई तो उसे फ़क़ीरों की ख़ानकाहों में पनाह मिली। ग़ज़ल उस वक़्त इंसानियत के पैगाम का एक ख़ूबसूरत ज़रिया बनी। वक़्त के साथ -साथ ग़ज़ल को अलग - अलग लिबास पहना दिये गये। कभी तो ग़ज़ल महबूब के गेसुओं से उलझी ,कभी शमा बन के जली, कभी दरबार में कसीदा हुई तो कभी टूटे हुए दिल की आवाज़ और फिर धीरे- धीरे ग़ज़ल ने रिवायत से भी बगावत शुरू कर दी। औरतों से गुफ़्तगू करने वाली ग़ज़ल सच -झूठ की कशमकश , बच्चों के खिलौने , भूख, मुफ़लिसी , रोटी और फिर यहाँ तक कि नाज़ुक ग़ज़ल ने बन्दूक की शक्ल भी इख्तियार कर ली। 80 के दशक में ग़ज़ल कहने वालों ने शाइरी को नई परिभाषाएं दी और जब इसी दौर के एक शाइर का ये शे'र सुना तो लगा कि सच में ग़ज़ल की तस्वीर बदल गई है :--
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शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
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मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
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अपनी लाचारी और बेबसी को भी ग़ज़ल बनाने के फ़न का नाम है राजेश रेड्डी। यूँ तो राजेश रेड्डी मूलतः हैदराबाद के है पर इनकी परवरिश गुलाबी शहर जयपुर में हुई। राजेश रेड्डी का जन्म 22 जुलाई 1952 को नागपुर में हुआ। इनके वालिद जनाब शेष नारायण रेड्डी जयपुर के बाशिंदे थे और नागपुर राजेश साहब की ननिहाल थी। इनके वालिद पोस्टल एवं टेलेग्राफ महकमें में थे पर संगीत उनका जुनून था सो घर के हर गोशे में संगीत बसा हुआ था। राजेश रेड्डी की पूरी तालीम जयपुर में ही हुई। राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से इन्होने एम्.ऐ हिन्दी साहित्य में किया। अपने कॉलेज के ज़माने से राजेश साहब को शाइरी के प्रति रुझान हुआ बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली और मोहम्मद अल्वी के क़लाम ने इन्हें मुतास्सिर किया पर शाइरी के पेचीदा पेचो - ख़म ,शाइरी की बारीकियां ,बात कहने का सलीक़ा सीखने के लिए राजेश रेड्डी साहब ने ग़ालिब के दीवान को अपना उस्ताद मान लिया। इनके वालिद जयपुर की नामी संगीत संस्था "राजस्थान श्रुति मंडल" से जुड़े थे ,घर में मौसिक़ी का माहौल था सो संगीत राजेश साहब के दिलो-दिमाग़ में रच बस गया। पढाई पूरी करने के बाद राजेश रेड्डी कुछ समय तक राजस्थान पत्रिका की "इतवारी पत्रिका" के उप-सम्पादक रहे और फिर 1980 से शुरू हो गई आकाशवाणी की मुलाज़मत।
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1980 के आस-पास राजेश साहब ने अपने अनूठे अंदाज़ में शे'र कहने शुरू किये । इसी वक़्त राजेश साहब को लगा की ग़ज़ल की रूह तक पहुँचने के लिए उर्दू लिपि का आना ज़रूरी है तो अपनी मेहनत और लगन से इन्होने शीरीं ज़बां उर्दू बा-क़ायदा सीखी।
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राजेश रेड्डी ने अपनी शाइरी का एक मौज़ूं इंसानियत को बनाया और इंसानियत को उन्होंने मज़हब की मीनारों से भी ऊपर माना :--
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गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
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मुझको पढ़ इन्सान हूँ मैं
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मैं इन्साँ था, इन्साँ हूँ , इन्साँ रहूँगा
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जो करना हो हिन्दू -मुसलमान कर लें
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राजेश रेड्डी ने अपनी शाइरी में न तो कभी महबूब की चौखट की परस्तिश की न ही कभी हुस्न की तारीफ़ मगर अपने जज़्बों का इज़हार बड़ी बेबाकी से किया यहाँ तक कि जब लहजे को शिकायती बनाया तो ख़ुदा से भी ये कह डाला :---
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फ़लक से देखेगा यूँ ही ज़मीन को कब तक
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ख़ुदा है तू तो करिश्मे भी कुछ ख़ुदा के दिखा
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जारी है आसमानी किताबों के बावजूद
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हर दिन ज़मीं के खूँ में नहाने का सिलसिला
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आज के दौर में चंद लोग ही बचे है जिन्होंने ज़मीर की चिड़िया को लालच की गुलेल से बचा के रखा है। राजेश रेड्डी अपनी शाइरी के ज़रिये जगबीती को आप बीती बना के कहते हैं। राजेश साहब इन्सान के किरदार में ज़मीर को बड़ा अहम् हिस्सा मानते हैं और इन्सान के ज़मीर में आई इस गिरावट को वे यूँ शे'र बनाते हैं :--
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बेच डाला हमने कल अपना ज़मीर
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ज़िन्दगी का आख़िरी ज़ेवर गया
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सोना था फ़क़त-लोग जो बाज़ार से ले आए
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बेच आए जो बाज़ार में ज़ेवर तो वही था
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शाइर वही कहता है जो अपने इर्द-गिर्द देखता है ,महसूस करता है। दोस्ती -यारी , तमाम रिश्ते बस ज़रूरत का दूसरा नाम हो के रह गये हैं। रिश्तों के इस खोखलेपन और अहबाब की मेहरबानियों को राजेश रेड्डी ने शाइरी का जामा कुछ इस तरह से पहनाया :---
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ज़िन्दा हूँ दोस्तों की दुआओं के बावजूद
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रोशन हूँ इतनी तेज़ हवाओं के बावजूद
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जब दोस्तों की दोस्ती है सामने मेरे
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दुनिया में दुश्मनी की मिसालों को क्या करूँ
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शहर में जा के बेटे की बढ़ तो गई कमाइयां
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बीमार माँ से दूर ही रहती रहीं दवाइयां
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राजेश रेड्डी का पहला ग़ज़ल संग्रह "उड़ान " आया जिसका इज़रा निदा फ़ाज़ली साहब ने किया। इसके बाद दूसरा ग़ज़ल संग्रह "आसमान से आगे " आया जिसके विमोचन का वाकया बड़ा दिलचस्प है हुआ यूँ कि इस ग़ज़ल संग्रह का इज़रा ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने करना था जगजीत साहब का नेहरु सेंटर ,मुंबई में ग़ज़लों का कार्यक्रम था सो उन्होंने राजेश जी से कहा की उसी वक़्त आपकी किताब का विमोचन कर देते हैं। अपने ग़ज़ल प्रोग्राम के बीच में जगजीत जी ने राजेश रेड्डी साहब का त-आर्रुफ़ सबसे करवाया और वहीं किताब का विमोचन किया साथ में उन्होंने राजेश साहब से अपनी ग़ज़ल सुनाने को कहा ,जैसे ही रेड्डी साहब ने मतला सुनाया “जाने कितनी उड़ान बाक़ी है...इस परिन्दे में जान बाक़ी है” उसी वक़्त जगजीत सिंह ने इसे गाया पूरी ग़ज़ल की धुन उन्होंने वहीं बना के श्रोताओं को सुनाई। इस तरह किसी किताब का इज़रा शायद इस से पहले कभी नहीं हुआ था। ये सब राजेश रेड्डी से जगजीत साहब की मुहब्बत और इनके क़लाम का कमाल था। राजेश रेड्डी का तीसरा ग़ज़ल संग्रह "वजूद " भी मंज़रे-आम पे आ चुका है। राजेश रेड्डी की किताबें उर्दू और नागरी दोनों में आई है।
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मशहूर शाइर निदा फ़ाज़ली फरमाते हैं कि राजेश रेड्डी की शाइरी सुकून की नहीं बेचैनी की शाइरी है।
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इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अपनी ग़ज़लों में रेड्डी साहब ऐसे सवाल छोड़ जाते हैं जिनका जवाब बस इन्सान खोजता ही रह जाता है। लफ़्ज़ों की जादूगरी से राजेश रेड्डी अपनी शाइरी को दूर रखते हैं कारी (पाठक ) से उनके अशआर सीधा संवाद स्थापित करते हैं और फिर ये गुफ़्तगू पढ़ने / सुनने वाले को सोचने के लिए मजबूर करती है। रेड्डी साहब शे'र जिस मक़सद से कहते हैं वे हमेशा उस मक़सद में कामयाब होते हैं। इनके अशआर तो यही बयान करते हैं :---
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इस अहद के इन्साँ में वफ़ा ढूँढ रहे हैं
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हम ज़हर की शीशी में दवा ढूँढ रहे हैं
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पूजा में, नमाज़ों में ,अजानों में, भजन में
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ये लोग कहाँ अपना ख़ुदा ढूँढ रहे हैं
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हम जिसको ढूंढते हैं ज़माने में उम्र भर
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वो ज़िन्दगी तो अपने ही अन्दर का खेल है
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बहला के अपने पास बुलाकर ,फरेब से
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नदियों को लूटना तो समन्दर का खेल है
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हर इक आग़ाज़ का अंजाम तय है
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सहर कोई हो उसकी शाम तय है
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हिरन सोने का चाहेगी जो सीता
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बिछड़ जाएँगे उस से राम तय है
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ग़ज़लों के साथ - साथ राजेश रेड्डी ने नाटक भी लिखे ,संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ ने तो इनके नाटक "भूमिका "को पुरस्कृत भी किया। राजेश रेड्डी को सूर्यकांत निराला अवार्ड से भी नवाज़ा गया है। राजेश साहब ने टी. वी . सीरियल "जज़्बात" ," मोड़ ", "वापसी" , "उलझन" के लिए गीतों के साथ -साथ संगीत निर्देशन भी किया। टेली फिल्म "पथराई आँखों के सपने" के लिए गीत भी रेड्डी साहब ने लिखे। मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लों की धुन राजेश रेड्डी साहब ने बनाई जिसे वीनस कंपनी ने "ग़ालिब" नाम से एल्बम की शक्ल दी और तलत अज़ीज़ एवं रूप कुमार राठौड़ ने इन ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी। राजेश रेड्डी की ग़ज़लों को जगजीत सिंह , पंकज उधास ,राज कुमार रिज़वी और भूपेंद्र ने भी गाया। फिलहाल राजेश रेड्डी साहब विविध भारती ,मुंबई में निदेशक के पद पे कार्यरत है।
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राजेश रेड्डी जब ग़ज़ल का श्रंगार करते हैं तो वे न तो उसके माथे पे रूमानियत की बिंदिया लगाते हैं न ही उसके गुलाब जैसे लबों पे शराब की सुर्खी मगर वे ग़ज़ल को रूहानियत का काजल , इंसानियत की बालियाँ ,साफगोई की नथ, ज़िन्दगी के फ़लसफ़ों के दुपट्टे और ज़मीर के कुंदन सरीखे मंगल-सूत्र से ऐसा सजाते हैं कि फिर ग़ज़ल का हुस्न देखते ही बनता है। राजेश रेड्डी की पूरी शाइरी का जिस्म इन तमाम बेश- क़ीमती ज़ेवरात से सजा हुआ है। इनके कुछ शे'र मेरी इस बात की पुख्ता दलील है :--
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रोज़ सवेरे दिन का निकलना ,शाम का ढ़लना जारी है
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जाने कब से रूहों का ये जिस्म बदलना जारी है
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मिट्टी का जिस्म लेके मैं पानी के घर में हूँ
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मंज़िल है मेरी मौत ,मैं हर पल सफ़र में हूँ
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लौट आती है ये जा-जा के नए जिस्म में क्यूँ
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आख़िर इस रूह का इस दुनिया से रिश्ता क्या है
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कोई भी जाना नहीं चाहता क्यूँ दुनिया से
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इस सराए में ,मैं हैरान हूँ , ऐसा क्या है
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तेरे मेरे दीन का मसअला नहीं,मसअला कोई और है
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न तेरा ख़ुदा कोई और है न मेरा ख़ुदा कोई और है
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मैं जहाँ हूँ सिर्फ़ वहीं नहीं,मैं जहाँ नहीं हूँ वहाँ भी हूँ
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मुझे यूँ न मुझमें तलाश कर कि मेरा पता कोई और है
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राजेश रेड्डी की शाइरी की अस्ल धुरी है ज़िन्दगी अगर ज़िन्दगी के तमाम रंग ग़ज़ल में देखने हों तो राजेश रेड्डी को पढ़ना एक अनिवार्य शर्त है। जब तक उन्हें नहीं पढ़ा था तब तक ज़िन्दगी से मुलाक़ात तो थी पर ऐसी न थी जैसी उन्हें पढ़ने के बाद ज़िन्दगी समझ में आई। मेरे इस जुमले की वक़ालत राजेश रेड्डी के अशआर बा-आसानी कर सकते हैं :--
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ज़िन्दगी। दिल में अरमान पलने तो दे
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तू खिलौना न दे पर मचलने तो दे
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किसी दिन ज़िन्दगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता
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मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ ज़िन्दा क्यूँ नहीं होता
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हो न पाया कभी कुछ भी सोचा हुआ
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क्या इसी से कोई सोचना छोड़ दे
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पार हो जाएगी ज़िन्दगी की नदी
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डूबना सीख ले तैरना छोड़ दे
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राजेश रेड्डी का क़लाम पढ़ने के लिए पाठक को लुगत (शब्द क़ोश) देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आसान और साधारण से लगने वाले लफ़्ज़ जब उनके किसी मिसरे में जगह पा लेते हैं तो उनका वज़न बढ़ जाता है। संगीत के महारथी होने का पूरा फ़ायदा राजेश रेड्डी अपनी शाइरी में उठाते हैं। ग़ज़ल इशारों में बात कहने का प्रभाव शाली माध्यम है मगर राजेश रेड्डी अपनी बात कहने के लिए इशारों का इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। अपनी बात बिना किसी लाग -लपेट के सीधे - सादे शब्दों के साथ कहना और इस तरहा कहन का उनका अंदाज़ उन्हें भीड़ से अलग करता है। बात कड़वी हो या मीठी रेड्डी साहब बस तबले के थाप की रिदम में अपनी बात आसानी से कह जाते हैं।
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जब छिड़ गई हो जंग सी दिल और दिमाग़ में
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बेहतर यही है बीच से हट जाना चाहिए
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पीछा न छूट पाये जब उनसे किसी तरह
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इन्साँ को मुश्किलों से लिपट जाना चाहिए
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कहाँ दैरो-हरम में रब मिलेगा
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वहाँ तो बस कोई मज़हब मिलेगा
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सब चाहते हैं मंज़िलें पाना ,चले बगैर
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जन्नत भी सबको चाहिए लेकिन मरे बगैर
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परवाज़ में कटेगी किसी की तमाम उम्र
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छू लेगा आसमान को कोई उड़े बगैर
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रिवायत के दायरे में रहकर भी रिवायत से हटकर शे'र कहना राजेश रेड्डी की शाइरी की सबसे बड़ी ख़ासियत है। रेड्डी साहब ने शे'र कहने के लिए उस हिन्दुस्तानी ज़ुबान का इस्तेमाल किया है जिसे फूटपाथ और रेशम के बिस्तर पर सोने वाले दोनों बड़ी आसानी से समझ जाते हैं। इतना तो मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि जो भी एकबार राजेश रेड्डी की शाइरी से मुख़ातिब होता है वो फिर अपने गिरेबान में झाँक के देखता ज़रूर है और यही शाइरी कि जीत है। राजेश रेड्डी ख़ुद मानते हैं कि ग़ज़ल कहना एक कलासिकल आर्ट है तभी तो मौसिक़ी का ये जादूगर अपने कहन के सुर में ऐसी तान छेड़ता है कि ग़ज़ल कभी तो आबशार (झरने) की कल- कल सी महसूस होती है कभी उसका एक- एक मिसरा शास्त्रीयता के साथ कत्थक और भरत-नाट्यम करता नज़र आता है इसी लिए तो हमारे अहद की ग़ज़ल फ़ख्र करती है कि मुझे कोई सुर और ताल दोनों में कहता है और बड़े- बड़े नक्कादों के पास ग़ज़ल की हाँ में हाँ मिलाने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। आख़िर में इन्हीं दुआओं के साथ कि राजेश रेड्डी यूँ ही सच्चा और अच्छा कह्ते रहे ....आमीन
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आख़िर सफ़र ने प्यास के, पी ही लिया लहू
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खा ही गया परिन्दे को दाने का सिलसिला
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हमसे कहीं बड़ी है हमारे सुख़न की उम्र
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सदियों का है ये लिखने -लिखाने का सिलसिला
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(आलेख : विजेंद्र शर्मा)
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16:39, 5 जुलाई 2014 के समय का अवतरण

राजेश रेड्डी

www.kavitakosh.org/rajeshreddy

जन्म

22 जुलाई 1952

जन्म स्थान

नागपुर, राजस्थान, भारत

शिक्षा

हिन्दी साहित्य में परास्नातक

कृतियाँ

उड़ान, आसमां से आगे

पुरस्कार

डॉ. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान

संपादन

राजस्थान पत्रिका

सम्पर्क

ए-403, सिल्वर मिस्ट, निकट- अमरनाथ टावर आफ़ यारी रोड, संजीव एन्क्लेव लेन 7 बंग्लाज़, अंधेरी(पश्चिम) मुंबई- 400 061

दूरभाष : 098215 47425

ई-मेल :rreddy@arenamobile.com

आलेख

हिन्दुस्तान में जब ग़ज़ल इरान से आई तो उसे फ़क़ीरों की ख़ानकाहों में पनाह मिली। ग़ज़ल उस वक़्त इंसानियत के पैगाम का एक ख़ूबसूरत ज़रिया बनी। वक़्त के साथ -साथ ग़ज़ल को अलग - अलग लिबास पहना दिये गये। कभी तो ग़ज़ल महबूब के गेसुओं से उलझी ,कभी शमा बन के जली, कभी दरबार में कसीदा हुई तो कभी टूटे हुए दिल की आवाज़ और फिर धीरे- धीरे ग़ज़ल ने रिवायत से भी बगावत शुरू कर दी। औरतों से गुफ़्तगू करने वाली ग़ज़ल सच -झूठ की कशमकश , बच्चों के खिलौने , भूख, मुफ़लिसी , रोटी और फिर यहाँ तक कि नाज़ुक ग़ज़ल ने बन्दूक की शक्ल भी इख्तियार कर ली। 80 के दशक में ग़ज़ल कहने वालों ने शाइरी को नई परिभाषाएं दी और जब इसी दौर के एक शाइर का ये शे'र सुना तो लगा कि सच में ग़ज़ल की तस्वीर बदल गई है :--

शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं

मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं

अपनी लाचारी और बेबसी को भी ग़ज़ल बनाने के फ़न का नाम है राजेश रेड्डी। यूँ तो राजेश रेड्डी मूलतः हैदराबाद के है पर इनकी परवरिश गुलाबी शहर जयपुर में हुई। राजेश रेड्डी का जन्म 22 जुलाई 1952 को नागपुर में हुआ। इनके वालिद जनाब शेष नारायण रेड्डी जयपुर के बाशिंदे थे और नागपुर राजेश साहब की ननिहाल थी। इनके वालिद पोस्टल एवं टेलेग्राफ महकमें में थे पर संगीत उनका जुनून था सो घर के हर गोशे में संगीत बसा हुआ था। राजेश रेड्डी की पूरी तालीम जयपुर में ही हुई। राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से इन्होने एम्.ऐ हिन्दी साहित्य में किया। अपने कॉलेज के ज़माने से राजेश साहब को शाइरी के प्रति रुझान हुआ बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली और मोहम्मद अल्वी के क़लाम ने इन्हें मुतास्सिर किया पर शाइरी के पेचीदा पेचो - ख़म ,शाइरी की बारीकियां ,बात कहने का सलीक़ा सीखने के लिए राजेश रेड्डी साहब ने ग़ालिब के दीवान को अपना उस्ताद मान लिया। इनके वालिद जयपुर की नामी संगीत संस्था "राजस्थान श्रुति मंडल" से जुड़े थे ,घर में मौसिक़ी का माहौल था सो संगीत राजेश साहब के दिलो-दिमाग़ में रच बस गया। पढाई पूरी करने के बाद राजेश रेड्डी कुछ समय तक राजस्थान पत्रिका की "इतवारी पत्रिका" के उप-सम्पादक रहे और फिर 1980 से शुरू हो गई आकाशवाणी की मुलाज़मत।

1980 के आस-पास राजेश साहब ने अपने अनूठे अंदाज़ में शे'र कहने शुरू किये । इसी वक़्त राजेश साहब को लगा की ग़ज़ल की रूह तक पहुँचने के लिए उर्दू लिपि का आना ज़रूरी है तो अपनी मेहनत और लगन से इन्होने शीरीं ज़बां उर्दू बा-क़ायदा सीखी।

राजेश रेड्डी ने अपनी शाइरी का एक मौज़ूं इंसानियत को बनाया और इंसानियत को उन्होंने मज़हब की मीनारों से भी ऊपर माना :--

गीता हूँ कुरआन हूँ मैं

मुझको पढ़ इन्सान हूँ मैं



मैं इन्साँ था, इन्साँ हूँ , इन्साँ रहूँगा

जो करना हो हिन्दू -मुसलमान कर लें

राजेश रेड्डी ने अपनी शाइरी में न तो कभी महबूब की चौखट की परस्तिश की न ही कभी हुस्न की तारीफ़ मगर अपने जज़्बों का इज़हार बड़ी बेबाकी से किया यहाँ तक कि जब लहजे को शिकायती बनाया तो ख़ुदा से भी ये कह डाला :---

फ़लक से देखेगा यूँ ही ज़मीन को कब तक

ख़ुदा है तू तो करिश्मे भी कुछ ख़ुदा के दिखा



जारी है आसमानी किताबों के बावजूद

हर दिन ज़मीं के खूँ में नहाने का सिलसिला

आज के दौर में चंद लोग ही बचे है जिन्होंने ज़मीर की चिड़िया को लालच की गुलेल से बचा के रखा है। राजेश रेड्डी अपनी शाइरी के ज़रिये जगबीती को आप बीती बना के कहते हैं। राजेश साहब इन्सान के किरदार में ज़मीर को बड़ा अहम् हिस्सा मानते हैं और इन्सान के ज़मीर में आई इस गिरावट को वे यूँ शे'र बनाते हैं :--

बेच डाला हमने कल अपना ज़मीर

ज़िन्दगी का आख़िरी ज़ेवर गया



सोना था फ़क़त-लोग जो बाज़ार से ले आए

बेच आए जो बाज़ार में ज़ेवर तो वही था

शाइर वही कहता है जो अपने इर्द-गिर्द देखता है ,महसूस करता है। दोस्ती -यारी , तमाम रिश्ते बस ज़रूरत का दूसरा नाम हो के रह गये हैं। रिश्तों के इस खोखलेपन और अहबाब की मेहरबानियों को राजेश रेड्डी ने शाइरी का जामा कुछ इस तरह से पहनाया :---

ज़िन्दा हूँ दोस्तों की दुआओं के बावजूद

रोशन हूँ इतनी तेज़ हवाओं के बावजूद



जब दोस्तों की दोस्ती है सामने मेरे

दुनिया में दुश्मनी की मिसालों को क्या करूँ



शहर में जा के बेटे की बढ़ तो गई कमाइयां

बीमार माँ से दूर ही रहती रहीं दवाइयां

राजेश रेड्डी का पहला ग़ज़ल संग्रह "उड़ान " आया जिसका इज़रा निदा फ़ाज़ली साहब ने किया। इसके बाद दूसरा ग़ज़ल संग्रह "आसमान से आगे " आया जिसके विमोचन का वाकया बड़ा दिलचस्प है हुआ यूँ कि इस ग़ज़ल संग्रह का इज़रा ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने करना था जगजीत साहब का नेहरु सेंटर ,मुंबई में ग़ज़लों का कार्यक्रम था सो उन्होंने राजेश जी से कहा की उसी वक़्त आपकी किताब का विमोचन कर देते हैं। अपने ग़ज़ल प्रोग्राम के बीच में जगजीत जी ने राजेश रेड्डी साहब का त-आर्रुफ़ सबसे करवाया और वहीं किताब का विमोचन किया साथ में उन्होंने राजेश साहब से अपनी ग़ज़ल सुनाने को कहा ,जैसे ही रेड्डी साहब ने मतला सुनाया “जाने कितनी उड़ान बाक़ी है...इस परिन्दे में जान बाक़ी है” उसी वक़्त जगजीत सिंह ने इसे गाया पूरी ग़ज़ल की धुन उन्होंने वहीं बना के श्रोताओं को सुनाई। इस तरह किसी किताब का इज़रा शायद इस से पहले कभी नहीं हुआ था। ये सब राजेश रेड्डी से जगजीत साहब की मुहब्बत और इनके क़लाम का कमाल था। राजेश रेड्डी का तीसरा ग़ज़ल संग्रह "वजूद " भी मंज़रे-आम पे आ चुका है। राजेश रेड्डी की किताबें उर्दू और नागरी दोनों में आई है।

मशहूर शाइर निदा फ़ाज़ली फरमाते हैं कि राजेश रेड्डी की शाइरी सुकून की नहीं बेचैनी की शाइरी है।

इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अपनी ग़ज़लों में रेड्डी साहब ऐसे सवाल छोड़ जाते हैं जिनका जवाब बस इन्सान खोजता ही रह जाता है। लफ़्ज़ों की जादूगरी से राजेश रेड्डी अपनी शाइरी को दूर रखते हैं कारी (पाठक ) से उनके अशआर सीधा संवाद स्थापित करते हैं और फिर ये गुफ़्तगू पढ़ने / सुनने वाले को सोचने के लिए मजबूर करती है। रेड्डी साहब शे'र जिस मक़सद से कहते हैं वे हमेशा उस मक़सद में कामयाब होते हैं। इनके अशआर तो यही बयान करते हैं :---

इस अहद के इन्साँ में वफ़ा ढूँढ रहे हैं

हम ज़हर की शीशी में दवा ढूँढ रहे हैं

पूजा में, नमाज़ों में ,अजानों में, भजन में

ये लोग कहाँ अपना ख़ुदा ढूँढ रहे हैं



हम जिसको ढूंढते हैं ज़माने में उम्र भर

वो ज़िन्दगी तो अपने ही अन्दर का खेल है

बहला के अपने पास बुलाकर ,फरेब से

नदियों को लूटना तो समन्दर का खेल है



हर इक आग़ाज़ का अंजाम तय है

सहर कोई हो उसकी शाम तय है

हिरन सोने का चाहेगी जो सीता

बिछड़ जाएँगे उस से राम तय है

ग़ज़लों के साथ - साथ राजेश रेड्डी ने नाटक भी लिखे ,संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ ने तो इनके नाटक "भूमिका "को पुरस्कृत भी किया। राजेश रेड्डी को सूर्यकांत निराला अवार्ड से भी नवाज़ा गया है। राजेश साहब ने टी. वी . सीरियल "जज़्बात" ," मोड़ ", "वापसी" , "उलझन" के लिए गीतों के साथ -साथ संगीत निर्देशन भी किया। टेली फिल्म "पथराई आँखों के सपने" के लिए गीत भी रेड्डी साहब ने लिखे। मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लों की धुन राजेश रेड्डी साहब ने बनाई जिसे वीनस कंपनी ने "ग़ालिब" नाम से एल्बम की शक्ल दी और तलत अज़ीज़ एवं रूप कुमार राठौड़ ने इन ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी। राजेश रेड्डी की ग़ज़लों को जगजीत सिंह , पंकज उधास ,राज कुमार रिज़वी और भूपेंद्र ने भी गाया। फिलहाल राजेश रेड्डी साहब विविध भारती ,मुंबई में निदेशक के पद पे कार्यरत है।

राजेश रेड्डी जब ग़ज़ल का श्रंगार करते हैं तो वे न तो उसके माथे पे रूमानियत की बिंदिया लगाते हैं न ही उसके गुलाब जैसे लबों पे शराब की सुर्खी मगर वे ग़ज़ल को रूहानियत का काजल , इंसानियत की बालियाँ ,साफगोई की नथ, ज़िन्दगी के फ़लसफ़ों के दुपट्टे और ज़मीर के कुंदन सरीखे मंगल-सूत्र से ऐसा सजाते हैं कि फिर ग़ज़ल का हुस्न देखते ही बनता है। राजेश रेड्डी की पूरी शाइरी का जिस्म इन तमाम बेश- क़ीमती ज़ेवरात से सजा हुआ है। इनके कुछ शे'र मेरी इस बात की पुख्ता दलील है :--

रोज़ सवेरे दिन का निकलना ,शाम का ढ़लना जारी है

जाने कब से रूहों का ये जिस्म बदलना जारी है



मिट्टी का जिस्म लेके मैं पानी के घर में हूँ

मंज़िल है मेरी मौत ,मैं हर पल सफ़र में हूँ



लौट आती है ये जा-जा के नए जिस्म में क्यूँ

आख़िर इस रूह का इस दुनिया से रिश्ता क्या है

कोई भी जाना नहीं चाहता क्यूँ दुनिया से

इस सराए में ,मैं हैरान हूँ , ऐसा क्या है



तेरे मेरे दीन का मसअला नहीं,मसअला कोई और है

न तेरा ख़ुदा कोई और है न मेरा ख़ुदा कोई और है

मैं जहाँ हूँ सिर्फ़ वहीं नहीं,मैं जहाँ नहीं हूँ वहाँ भी हूँ

मुझे यूँ न मुझमें तलाश कर कि मेरा पता कोई और है

राजेश रेड्डी की शाइरी की अस्ल धुरी है ज़िन्दगी अगर ज़िन्दगी के तमाम रंग ग़ज़ल में देखने हों तो राजेश रेड्डी को पढ़ना एक अनिवार्य शर्त है। जब तक उन्हें नहीं पढ़ा था तब तक ज़िन्दगी से मुलाक़ात तो थी पर ऐसी न थी जैसी उन्हें पढ़ने के बाद ज़िन्दगी समझ में आई। मेरे इस जुमले की वक़ालत राजेश रेड्डी के अशआर बा-आसानी कर सकते हैं :--

ज़िन्दगी। दिल में अरमान पलने तो दे

तू खिलौना न दे पर मचलने तो दे



किसी दिन ज़िन्दगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता

मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ ज़िन्दा क्यूँ नहीं होता



हो न पाया कभी कुछ भी सोचा हुआ

क्या इसी से कोई सोचना छोड़ दे

पार हो जाएगी ज़िन्दगी की नदी

डूबना सीख ले तैरना छोड़ दे

राजेश रेड्डी का क़लाम पढ़ने के लिए पाठक को लुगत (शब्द क़ोश) देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आसान और साधारण से लगने वाले लफ़्ज़ जब उनके किसी मिसरे में जगह पा लेते हैं तो उनका वज़न बढ़ जाता है। संगीत के महारथी होने का पूरा फ़ायदा राजेश रेड्डी अपनी शाइरी में उठाते हैं। ग़ज़ल इशारों में बात कहने का प्रभाव शाली माध्यम है मगर राजेश रेड्डी अपनी बात कहने के लिए इशारों का इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। अपनी बात बिना किसी लाग -लपेट के सीधे - सादे शब्दों के साथ कहना और इस तरहा कहन का उनका अंदाज़ उन्हें भीड़ से अलग करता है। बात कड़वी हो या मीठी रेड्डी साहब बस तबले के थाप की रिदम में अपनी बात आसानी से कह जाते हैं।

जब छिड़ गई हो जंग सी दिल और दिमाग़ में

बेहतर यही है बीच से हट जाना चाहिए

पीछा न छूट पाये जब उनसे किसी तरह

इन्साँ को मुश्किलों से लिपट जाना चाहिए



कहाँ दैरो-हरम में रब मिलेगा

वहाँ तो बस कोई मज़हब मिलेगा



सब चाहते हैं मंज़िलें पाना ,चले बगैर

जन्नत भी सबको चाहिए लेकिन मरे बगैर

परवाज़ में कटेगी किसी की तमाम उम्र

छू लेगा आसमान को कोई उड़े बगैर

रिवायत के दायरे में रहकर भी रिवायत से हटकर शे'र कहना राजेश रेड्डी की शाइरी की सबसे बड़ी ख़ासियत है। रेड्डी साहब ने शे'र कहने के लिए उस हिन्दुस्तानी ज़ुबान का इस्तेमाल किया है जिसे फूटपाथ और रेशम के बिस्तर पर सोने वाले दोनों बड़ी आसानी से समझ जाते हैं। इतना तो मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि जो भी एकबार राजेश रेड्डी की शाइरी से मुख़ातिब होता है वो फिर अपने गिरेबान में झाँक के देखता ज़रूर है और यही शाइरी कि जीत है। राजेश रेड्डी ख़ुद मानते हैं कि ग़ज़ल कहना एक कलासिकल आर्ट है तभी तो मौसिक़ी का ये जादूगर अपने कहन के सुर में ऐसी तान छेड़ता है कि ग़ज़ल कभी तो आबशार (झरने) की कल- कल सी महसूस होती है कभी उसका एक- एक मिसरा शास्त्रीयता के साथ कत्थक और भरत-नाट्यम करता नज़र आता है इसी लिए तो हमारे अहद की ग़ज़ल फ़ख्र करती है कि मुझे कोई सुर और ताल दोनों में कहता है और बड़े- बड़े नक्कादों के पास ग़ज़ल की हाँ में हाँ मिलाने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। आख़िर में इन्हीं दुआओं के साथ कि राजेश रेड्डी यूँ ही सच्चा और अच्छा कह्ते रहे ....आमीन

आख़िर सफ़र ने प्यास के, पी ही लिया लहू

खा ही गया परिन्दे को दाने का सिलसिला

हमसे कहीं बड़ी है हमारे सुख़न की उम्र

सदियों का है ये लिखने -लिखाने का सिलसिला

(आलेख : विजेंद्र शर्मा)