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घरेलू स्त्री / ममता व्यास

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वो किसी भी बहाने से रच लेती है कविता
तुम शोर मचाते हो एक कविता लिखकर
वो जिन्दगी ज़िन्दगी लिख कर भी खामोश ख़ामोश रहती है
रातभर जागकर जब तुम इतरा रहे होते हो किसी एक कविता के जन्म पर
वो सारी रात दिनभर लिखी कविताओं का हिसाब करती है
कितनी कविताएं सब्जी के साथ कट गईं
और कितनी ही कविताएं सो गयी तकिये से चिपक कर
कढाई में कभी हलवा नहीं जला...जलती रही कविता धीरे धीरे
जैसे दूध के साथ उफन गए कितने अहसास भीगे से
हर दिन आखों आँखों से बहकर गालों पे बनती
और होठों के किनारों पर दम तोड़ती है कविता
तुम इसे जादू कहोगे
हाँ सही है, क्योंकि यह इस पल है अगले पल नहीं होगी
अभी चमकी है अगले पल भस्म होगी
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