भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"फिरंगी चले गए / शील" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= शील }} <poem> करती है दिन को रात सियासत सुदेश की, बो क...)
 
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
<poem>
 
<poem>
 
करती है दिन को रात सियासत सुदेश की,
 
करती है दिन को रात सियासत सुदेश की,
बो कर कलह के बीज, फिरंगी चले गए।
+
बो कर कलह के बीज, फिरंगी चले गए ।
  
 
भ्रम की भँवर थी, ख़ुश थे, अहिंसा से जय मिली,
 
भ्रम की भँवर थी, ख़ुश थे, अहिंसा से जय मिली,
दुश्मन बने अजीज़, फिरंगी चले गए।
+
दुश्मन बने अजीज़, फिरंगी चले गए ।
  
 
आते हैं शील ज़लज़ले, ईमान की क़सम,
 
आते हैं शील ज़लज़ले, ईमान की क़सम,
राहें हुईं ग़लीज़, फिरंगी चले गए।
+
राहें हुईं ग़लीज़, फिरंगी चले गए ।
  
 
रहबर ही कर रहे हैं यहाँ, राहज़न के काम,
 
रहबर ही कर रहे हैं यहाँ, राहज़न के काम,
मांगे मिली तमीज़, फिरंगी चले गए।
+
मांगे मिली तमीज़, फिरंगी चले गए ।
  
 
हम यौमे-स्वतंत्रता को फ़क़त देखते रहे,
 
हम यौमे-स्वतंत्रता को फ़क़त देखते रहे,
लग़ज़िश लगी लज़ीज़, फिरंगी चले गए।
+
लग़ज़िश लगी लज़ीज़, फिरंगी चले गए ।
 
</poem>
 
</poem>

11:04, 30 अगस्त 2014 के समय का अवतरण

करती है दिन को रात सियासत सुदेश की,
बो कर कलह के बीज, फिरंगी चले गए ।

भ्रम की भँवर थी, ख़ुश थे, अहिंसा से जय मिली,
दुश्मन बने अजीज़, फिरंगी चले गए ।

आते हैं शील ज़लज़ले, ईमान की क़सम,
राहें हुईं ग़लीज़, फिरंगी चले गए ।

रहबर ही कर रहे हैं यहाँ, राहज़न के काम,
मांगे मिली तमीज़, फिरंगी चले गए ।

हम यौमे-स्वतंत्रता को फ़क़त देखते रहे,
लग़ज़िश लगी लज़ीज़, फिरंगी चले गए ।