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कवि: [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र]]}}~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~{{KKCatDoha}}<poem>
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
 बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
 पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।हीन।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
 निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।कोय।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
 लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।कोय।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
 तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।सोग।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
 निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।बात।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
 यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।होय।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
 सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।प्रचार।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
 विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।लखात।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
 उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।आय।</poem>
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