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"मोहन! मो नयनन के तारे / स्वामी सनातनदेव" के अवतरणों में अंतर
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‘दीनानाथ’ कहावत हो तुम, का यह विरद विसारे। | ‘दीनानाथ’ कहावत हो तुम, का यह विरद विसारे। | ||
− | दीन | + | दीन मीन सम तलफत है यह, काहे न लेहु उबारे॥4॥ |
कहा कहों, का तुम नहिं जानहु, अब सब विधि हम हारे। | कहा कहों, का तुम नहिं जानहु, अब सब विधि हम हारे। | ||
हारे के तो तुम बिनु मोहन! और न कोउ सहारे॥5॥ | हारे के तो तुम बिनु मोहन! और न कोउ सहारे॥5॥ |
16:25, 20 नवम्बर 2014 का अवतरण
श्रीकृष्ण के प्रति
राग देवगान्धार, तीन ताल 21.6.1974
मोहन! मो नयनन के तारे।
दरसनकों तरसहिं नित नयना, कहाँ छिपे हो प्यारे!
जुग-जुगसों यह साध सँजोई, पथ पेखत चखहारे।
हाय दई! का भई चूक जो अब लौं नाहिं पधारे॥1॥
विरहानल अति प्रबल प्रानधन! जुग-जुगसों जिय जारे।
कृपा-वारि बरसावहु प्यारे! तरसहिं प्रान हमारे॥2॥
है अति आकुल हियो हाय! हम जनम-जनम पचि हारे।
निरबलपै बल अजमावहु तुम, कैसे चरित तिहारे॥3॥
‘दीनानाथ’ कहावत हो तुम, का यह विरद विसारे।
दीन मीन सम तलफत है यह, काहे न लेहु उबारे॥4॥
कहा कहों, का तुम नहिं जानहु, अब सब विधि हम हारे।
हारे के तो तुम बिनु मोहन! और न कोउ सहारे॥5॥
तारे तुमने जीव अनेकन, हम हि भये क्यों भारे।
तारत-तारत हार गये का माखन चाखन हारे॥6॥