|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिरवह उठी आँधी कि नभ मेंछा गया सहसा अँधेरा,<br>नेह का आह्णान फिर-फिर!<br>धूलि धूसर बादलों नेभूमि को इस भाँति घेरा,
रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
वह उठी आँधी कि नभ में<br>रात के उत्पात-भय सेछा गया सहसा अँधेराभीत जन-जन,<br>भीत कण-कणधूलि धूसर बादलों ने<br>किंतु प्राची से उषा कीभूमि को इस भाँति घेरा,<br>मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!
रात-सा दिन हो गया, फिर<br>वह चले झोंके कि काँपेरात आई और कालीभीम कायावान भूधर,<br>लग रहा था अब न होगा<br>जड़ समेत उखड़-पुखड़करइस निशा का फिर सवेरागिर पड़े, टूटे विटप वर,<br>
हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलो पर क्या न बीती,
डगमगाए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर;
रात बोल आशा के उत्पात-भय से<br>विहंगम,भीत जन-जनकिस जगह पर तू छिपा था, भीत कण-कण<br>किंतु प्राची जो गगन पर चढ़ उठातागर्व से उषा की<br>मोहिनी मुस्कान निज तान फिर-फिर!<br>
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,<br>नेह का आह्णान फिर-फिर!<br> वह चले झोंके कि काँपे<br>भीम कायावान भूधर,<br>जड़ समेत उखड़-पुखड़कर<br>गिर पड़े, टूटे विटप वर,<br> हाय, तिनकों से विनिर्मित<br>घोंसलो पर क्या न बीती,<br>डगमगाए जबकि कंकड़,<br>ईंट, पत्थर के महल-घर;<br> बोल आशा के विहंगम,<br>किस जगह पर तू छिपा था,<br>जो गगन पर चढ़ उठाता<br>गर्व से निज तान फिर-फिर!<br> नीड़ का निर्माण फिर-फिर,<br>नेह का आह्णान फिर-फिर!<br> क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों<br>में उषा है मुसकराती,<br>घोर गर्जनमय गगन के<br>कंठ में खग पंक्ति गाती;<br> एक चिड़िया चोंच में तिनका<br>लिए जो जा रही है,<br>वह सहज में ही पवन<br>उंचास को नीचा दिखाती!<br>
नाश के दुख से कभी<br>एक चिड़िया चोंच में तिनकादबता नहीं निर्माण का सुख<br>लिए जो जा रही है,प्रलय की निस्तब्धता से<br>वह सहज में ही पवनसृष्टि का नव गान फिर-फिरउंचास को नीचा दिखाती!<br>
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,<br>
नेह का आह्णान फिर-फिर!
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