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|रचनाकार= राजुल मेहरोत्रा
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[[Category:लम्बी रचना]]
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|पीछे= हिन्दी साहित्य का इतिहास / राजुल मेहरोत्रा
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|सारणी= हिन्दी काव्य का इतिहास
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'''काल-विभाजन और नामकरण'''
हिन्दी-साहित्य के इतिहास-ग्रन्थोँ मेँ ग्रन्थों में काल-विभाजन के लिये प्राय: चार पद्धतियोँ पद्धतियों का अवलम्ब लिया गया है। पहली पद्धति के अनुसार, सम्पूर्ण इतिहास का विभाजन चार काल-खण्डोँ मेँ खण्डों में किया गया है:
# आदिकाल
# भक्तिकाल
# आधुनिककाल
आचार्य शुक्ल द्वारा और उनके अनुसरण पर नागरीप्रचारिणी सभा के इतिहास मेँमें, इसी को ग्रहण किया गया है। दूसरे क्रम के अनुसार केवल तीन युगोँ युगों की कल्पना ही विवेकसम्मत है:
# आदिकाल
# मध्यकाल
# आधुनिककाल
भारतीय हिन्दी परिषद के इतिहास मेँ में इसे ही स्वीकार किया गया है और डा० गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने वैज्ञानिक इतिहास मेँ में इसी का अनुमोदन किया है। इसके पीछे तर्क यह है कि मध्यकालीन साहित्य की चेतना प्राय: एक है: उन्नीसवीँ उन्नीसवीं सदी के मध्य मेँ में या उसके आगे-पीछे उसमेँ उसमें कोई ऎसा मौलिक परिवर्तन नहीँ नहीं हुआ जिसके आधार पर युग-परिवर्तन की मान्यता सिद्ध की जा सके। सँतसंत-काव्य, प्रेमाख्यान काव्य, रामकाव्य, कृष्णकाव्य, वीरकाव्य, नीतिकाव्य, रीतिकाव्य आदि की धाराएँ पूरे मध्यकाल मेँ में पाँच शताब्दियोँ शताब्दियों तक अखण्ड रूप से प्रवाहित होती रहीँरहीं, उनमेँ उनमें मौलिक परिवर्तन नहीँ नहीं हुआ। तीसरी पद्धति साहित्य का विभाजन विधा-क्रम से करती है। इसका आधार यह है कि समस्त साहित्य-राशि का एकत्र अध्ययन करने की अपेक्षा कविता तथा गद्य-साहित्य की विविध विधाओँ विधाओं के इतिहास का वर्गीकृत अध्ययन साहित्य-शास्त्र के अधिक अनुकूल है। इनके अतिरिक्त एक पद्धति और है जो शुद्ध कालक्रम के अनुसार वस्तुगत विभाजन को ही अधिक यथार्थ मानती है। इसके प्रवक्ताओँ प्रवक्ताओं का तर्क है कि किसी विचारधारा अथवा साहित्यिक दृष्टिकोण का आरोपण करने से परिदृष्य विकृत हो जाता है और यथार्थ-दर्शन मेँ में बाधा पड़ती है - अत: स्वाभाविक कालक्रम के अनुसार ही सामग्री का विभाजन करना समीचीन है।
जार्ज ग्रियर्सन ने सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन करने का प्रयास किया। काल-विभाजन पर अपनी सम्मति प्रकट करते हुए ग्रियर्सन ने लिखा "सामग्री को यथासम्भव काल-क्रमानुसार प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। वह सर्वत्र सरल नहीँ नहीं रहा है और कतिपय स्थलोँ पर तो यह असम्भव सिद्ध हुआ है। अतएव वे कवि, जिनके समय मैँ किसी भी प्रकार स्थिर नहीँ नहीं कर सका, अन्तिम अध्याय मेँमें...दे दिये गये हैँ।....प्रत्येक अध्याय सामान्यतया एक काल का सूचक है। भारतीय भाषा-काव्य के स्वर्णयुग १६वीँ १६वीं १७वीं शती पर मलिक मुहम्मद की कविता से प्रारम्भ करके व्रज के कृष्णभक्त कवियोँ, तुलसीदास के ग्रन्थोँ ग्रन्थों और केशव द्वारा स्थापित कवियोँ के रीति सम्प्रदाय को सम्मिलित करके कुल ६ अध्याय हैं जो पूर्णतया समय की दृष्टि से विभक्त नहीँ नहीं हैं, बल्कि कवियोँ के विशेष वर्गोँ की दृष्टि से बंटे हैं।" अपका काल-विभाजन इस प्रकार है--
# चारणकाल ७०० से १३०० ई. तक
# पन्द्रहवीँ पन्द्रहवीं शती का पुनर्जागरण
# [[मलिक मोहम्मद जायसी|जायसी]] की प्रेम कविता
# व्रज का कृष्ण सम्प्रदाय
# रीति सम्प्रदाय
# तुलसीदास के अन्य परवर्ती
# अठारहवीँ अठारहवीं शताब्दी# महारानी विक्टोरिया के शासन मेँ में हिन्दुस्तान
ग्रियर्सन के इस वर्गीकरण मेँ में दूसरे, पाँचवेँपाँचवें, नौवें तथा दसवेँ दसवें नामकरण मेँ ऎतिहासिकता में ऐतिहासिकता का प्राधान्य है, साहित्यिकता का नहीँनहीं; जबकि साहित्य इतिहास के काल-विभाजन मेँ में साहित्यिक प्रवृत्तियोँ पर ही बल होना चाहिये।
इसके उपरान्त मिश्रबन्धुओँ ने "मिश्रबन्धु विनोद" मेँ में काल-विभाजन का प्रयास किया, जो जार्ज ग्रियर्सन के काल-विभाजन की तुलना मेँ कहीँ में कहीं अधिक प्रौढ़, विकसित तथा तर्कसँगत है, यथा-
# आरम्भिक काल ७०० से १४४४ वि० तक।
# वर्तमान काल १९२६ से अबतक।
मिश्रबन्धुओँ का काल-विभाजन पद्धति की दृष्टि से सम्यक एवँ सरल है परन्तु नामकरण मेँ में एकरूपता का अभाव है, क्योँकि "अलँकृत काल" नाम साहित्य की आन्तरिक प्रवृत्ति अथवा वर्ण्यविषय अथवा कवियोँ के सम्प्रदाय विशेष का द्योतन करता है; जबकि पहला, दूसरा और चौथा नाम विकासावस्था को व्यक्त करता है तथा अन्तिम युग विशेष का सँकेतमात्र ही देता है। इतना ही नहीँ नहीं वरन अपभ्रँश युग को हिन्दी साहित्य का आदिकाल मानना भाषा वैज्ञानिक भूल भी है।
इसके उपरान्त १९२० ई. में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार कालों मेँ में विभक्त कर उनका नामकरण इस प्रकार किया है--
# वीरगाथा काल
# भक्तिकाल
# आधुनिक काल
इनमेँ इनमें से भक्तिकाल और आधुनिककाल को तो यथावत स्वीकार कर लिया गया है, परन्तु वीरगाथा काल और रीतिकाल के विषय मेँ में विवाद रहा है। जिन वीरगाथाओँ के आधार पर शुक्लजी ने "वीरगाथा काल" का नामकरण किया है, उसमेँ उसमें से कुछ अप्राप्य हैं और कुछ परवर्ती काल की रचनाएँ हैं। इनके अतिरिक्त जो साहित्य इस कालावधि मेँ में लिखा गया है, उसमेँ उसमें सामन्तीय और धार्मिक तत्वोँ का प्राधान्य होने पर भी कथ्य और माध्यम के रूपोँ की ऎसी विविधता और अव्यवस्था है कि किसी एक प्रवृत्ति के आधार पर उसका सही नामकरण नहीँ नहीं किया जा सकता। ऎसी स्थिति मेँ में "आदिकाल" जैसा निर्विशेष नाम, जो भाषा और साहित्य की आरम्भिक अवस्था मात्र का द्योतन करता है, अधिक समीचीन है। रीतिकाल के संदर्भ मेँ में मतभेद सीमित है।
आधुनिक काल को शुक्लजी ने तीन चरणोँ मेँ में विभक्त किया है और उन्हेँ प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय उत्थान कहा है। प्रथम और द्वितीय उत्थान के विषय मेँ उन्होँने में उन्होंने यह सँकेत भी कर दिया है कि इन्हेँ क्रमश: "भारतेँदु काल" और "द्विवेदी काल" भी कहा जा सकता है। तीसरे उत्थान को कदाचित उसके प्रवाहमय रूप के कारण, उन्होँने उन्होंने कोई नाम नहीँ नहीं दिया। पहला काल-खण्ड जीवन और साहित्य मेँ में पुनर्जागरण का युग था, जब अतीत की गौरव-भावना के परिप्रेक्षय मेँ में नवजागरण की चेतना विकसित हो रही थी; अत: इसे "पुनर्जागरण काल" नाम दिया जा सकता है और चूँकि भारतेँदु के व्यक्तित्व और कृतित्व मेँमें, जिन्होंने अपने जीवन काल मेँ में इस युग का नेतृत्व किया और जिनका प्रभाव मरणोपरान्त भी बना रहा, यह चेतना सम्यक प्रतिफलित हो रही थी, इसलिये इसका नामकरण उनके नाम पर भी करने मेँ में कोई आपत्ति नहीँ नहीं हो सकती। प्राय: इसी पद्धति और युक्ति से द्वितीय उत्थान का भी नामकरण किया जा सकता है: उसे हम औचित्यपूर्वक "जागरण-सुधार-काल" या विकल्पत: "द्विवेदी-युग" कह सकते हैँ। तीसरे चरण की सर्वप्रमुख साहित्य-प्रवृत्ति है - छायावाद, अत: उसका उचित नाम "छायावाद-काल" ही हो सकता है।उसके परवर्ती काल की चेतना इतनी जल्दी-जल्दी बदल रही है कि किसी एक स्थिर आधार को लेकर उसका नामकरण नहीँ नहीं किया जा सकता। आरम्भ मेँ में प्रगतिवाद का दौर था जो कुछ ही वर्षोँ मेँ में समाप्त हो गया। तदन्तर प्रयोगवाद का आविर्भाव हुआ जो थोड़े समय तक इसके समानान्तर चलकर १९५३ के आसपास नवलेखन मेँ में परिणत हो गया। अत्याधुनिक लेखन का दावा है कि नवलेखन का युग भी १९६० के बाद खत्म हो गया है और इसके बाद की साहित्य-चेतना-यथार्थ-बोध की प्रखरता के कारण अपनी पूर्ववर्ती साहित्य-चेतना से भिन्न है। अत: इस अस्थिर और त्वरित गति से बढ़ते हुए, साहित्य-प्रवाह को किसी एक नाम मेँ में कैसे बाँधा जा सकता है। कुछ आलोचक पूर्वार्ध को "प्रगति-प्रयोग-काल" और उत्तरार्ध को "नवलेखन काल" कहना चाहते हैँ और कुछ इस पूरे काल-खण्ड को "छायावादोत्तर काल" के नाम से अभिहित करते हैँ। इनमेँ इनमें से पहले दोनो नामोँ मेँ में प्रमुख प्रवृत्तियोँ को रेखाँकित किया गया है; जबकि दूसरा छायावाद के अवशिष्ट प्रभाव, विस्तार तथा विरोधी प्रतिक्रिया को अधिक महत्व देता है। स्वतँत्रता की प्राप्ति इसी युग की घटना है, पर यह साहित्यिक चेतना को कोई नया मोड़ नहीँ नहीं दे सकी, इसलिये नामकरण मेँ में उसकी कोई विशेष सँगति नहीँ संगति नहीं है। यदि इस तर्क के आधार पर कि इतिहास को बहुत छोटे-छोटे खण्डों मेँ में विभक्त करने से समग्र दर्शन मेँ में बाधा आती है, अथवा यह मानकर कि समसामयिक साहित्य का स्वरूप स्थिर होने मेँ में कुछ देर लगती है, वर्तमान युग को एक नाम ही देना है तो "छायावादोत्तर काल" नाम अभावात्मक होते हुए भी असँगत नहीँ असंगत नहीं है।
[[रामकुमार वर्मा|डा० रामकुमार वर्मा]] के काल-विभाजन के अन्तिम चार काल-खण्ड तो आचार्य शुक्ल के ही विभाजन के अनुरूप हैँ, केवल "वीरगाथा काल" के स्थान पर "चारणकाल" नाम अवश्य दे दिया गया है; किन्तु इसमेँ इसमें एक विशेषता "सन्धिकाल" की है, जो वस्तुत: गुण-वृद्धि का सूचक कम एवँ एवं दोष-वृद्धि का द्योतक अधिक है। कुछ विद्वानो ने तो "चारण काल" नामकरण भी असंगत बताया है, उनके मतानुसार उस युग के काव्य रचयिता चारण नहीँ नहीं -- भाट, भट्ट अथवा ब्रम्हभट्ट थे। इसी प्रकार "सन्धिकाल" नामकरण द्वारा रूढ़ि-त्याग एवँ नवीनता-ग्रहण का साहस अवश्य दिखाया गया है, परन्तु उसमेँ उसमें भ्रामकता अधिक है, निश्चयात्मकता कम।
"हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास" की पूर्व पीठिका मेँ में डा० गणपति चन्द्र गुप्त ने काल विभाजन मेँ में कुछ सँशोधन कर वर्गीकरण को नया रूप देने का प्रयास किया है। आपने आचार्य द्विवेदी द्वारा दिये गये नामोँ - आदिकाल, भक्तिकाल तथा रीतिकाल को यथावत स्वीकार कर आधुनिक काल मेँ में कुछ परिवर्तन कर काल-विभाजन को अद्यतन स्वरूप प्रदान किया है --
# आदि काल ६५०-१३५० ई. तक।
## भारतेन्दु काल [पुनर्जागरण-काल] १८५७-१९०८ ई. तक,
## द्विवेदी काल [जागरण-सुधार काल] १९०८-१९१५ ई. तक,
## [[छायावाद|छायावाद काल]] १९१५-१९३८ ई. तक, [पहली छायावादी कविता १९१२ मेँ में प्रकाशित हुई थी तथापि उसका जोर १९१५ से हुआ]
## छायावादोत्तर काल -.........
### प्रगति-प्रयोग काल १९३८-१९५३ ई. तक,
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