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"नग्नता / नीलोत्पल" के अवतरणों में अंतर

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      (एक)
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कहीं कोई संगति नहीं, बसंत नहीं
     
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फिर भी सड़के धूल भरी यात्रा में खोजती हुईं
बहुत मुश्किल है अपने नहीं कहे को आवाज़ दे पाना
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छांह के लिए एक कोना
  
परिंदं भले होते हैं
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कोई रंग नहीं भरा गया
वे उन अज्ञात रास्तों को आवाज़ देते हैं
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उस ख़ाली केनवास पर
जो छिपे होते है
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और वह चला गया बग़ैर जूतों के
घरों, जंगलों और भीतर
+
  
हम उन बताई जगहों की ओर बढते हैं
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हम उलझे पथिक लौट रहे हैं  
जिनकी सूचना मिलती है अप्रमाणित युद्धों में  
+
घरों में दुबकी शांति के लिए
उन बिखरावों में जो हमारे टूटे अनुभवों की
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दांस्तानां में भरी पड़ी
+
  
लेकिन यह प्रेम को आवाज़ देने जैसा नहीं है
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सारे पेड़ों ने कपड़े उतार लिए हैं
अंतहीन खोहों से भरा है प्रेम
+
और हम उनकी नग्नता में देखते हैं
अनगिनत बांबियों और घांसलों से
+
कैसे सारी चिड़ियां उनसे मिलने आती हैं
इसका व्यक्त भी अव्यक्त है  
+
और ढंक लेती है अपने भारी भरकम थैली सरीखे गोल पेट को
और अव्यक्त भी व्यक्त
+
कुछ अधपीली पपड़ायी पत्तियों के भीतर
  
बहुत मुश्किल है मैं अपने नहीं कहे को जानूं
+
किसी दिन हमारी नींद में
मैं एक विपरीत दिशा वाला व्यक्ति
+
फड़फड़ाते हैं कुछ टूटे स्वप्न
कहूं कि मेरी वह छिपी आवाज़ का प्रस्फुटन
+
और हम अपने चेहरों से
कविता की तरह है तो
+
उतार फेंकते हैं रात के सारे तज़र््ांमें
यह आवाज़ की तरह नहीं
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उस दबी पहचान की तरह है
+
  
जो नहीं कहे से बाहर है
+
सिर्फ़ कोयले ही बिना रंगे रह गए
याने परिंदों की तरह के रास्ते असंभव नहीं
+
जलने के बाद
  
      (दो)
+
प्रेम ही बचा रहा
 +
तमाम नाक़ाम विचारों के बावजूद 
  
जब मैं अपनी आवाज़ दोहराता हूं
 
ख़ासकर चीज़ों के रेशों, कोमल घासों,
 
प्रेम की अंतहीन सांसों और पत्तों पर बिछी बूंदों के साथ
 
या उन्हें लिए तो हर बार एक समुद्र का अंधेरा
 
छंट जाता है
 
 
एक मूर्ति अपने तराशे शिल्प से झांकती
 
खो जाती है पुनः नहीं रचे एक नए शिल्प की ओर
 
नहीं लिखी पंक्तियां लिख ली जाती है
 
  
जीवन के संकेत दोहराए जाने से
+
हर चीज़ अपनी नग्नता में
जिन्हें शायद कभी पहचान मिल सकेगी
+
अपना सच छोड़ जाती है.
 
+
जितनी अस्पष्ट स्मृतियां है
+
उनकी धंधलायी चमक से
+
रगड़ खाती आवाजें
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जैसे किसी वाद्य के तार लटके हो
+
पेड़ों पर
+
हवा उनसे बार-बार टकराती है
+
हम सुनते ये आकस्मिक संगीत
+
लौटते हैं रोजमर्रा की गलियों में
+
 
+
दोहराता हूं ख़ुद को
+
संगीत, प्रेम और तुम्हें
+
ताकि गुम होने से पहले
+
लिपट सकूं भरसक
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13:42, 23 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण

कहीं कोई संगति नहीं, बसंत नहीं
फिर भी सड़के धूल भरी यात्रा में खोजती हुईं
छांह के लिए एक कोना

कोई रंग नहीं भरा गया
उस ख़ाली केनवास पर
और वह चला गया बग़ैर जूतों के

हम उलझे पथिक लौट रहे हैं
घरों में दुबकी शांति के लिए

सारे पेड़ों ने कपड़े उतार लिए हैं
और हम उनकी नग्नता में देखते हैं
कैसे सारी चिड़ियां उनसे मिलने आती हैं
और ढंक लेती है अपने भारी भरकम थैली सरीखे गोल पेट को
कुछ अधपीली पपड़ायी पत्तियों के भीतर

किसी दिन हमारी नींद में
फड़फड़ाते हैं कुछ टूटे स्वप्न
और हम अपने चेहरों से
उतार फेंकते हैं रात के सारे तज़र््ांमें

सिर्फ़ कोयले ही बिना रंगे रह गए
जलने के बाद

प्रेम ही बचा रहा
तमाम नाक़ाम विचारों के बावजूद


हर चीज़ अपनी नग्नता में
अपना सच छोड़ जाती है.