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धूल भरी पलकें मलती, अलकें कपोल से खिसकाती,
बारबार कटि-वसन खींचती, विस्मित खोयी-सी निज में,
शिथिल  करों शिथिल करों से पोंछ अधर पर से रवि के चुम्बन, गाती
कौन, आह! तुम ओसकणी-सी जग के सूखे सरसिज में?
 
तुम वसंत-दूतिका,  शिशिर-सहचरी कि रानी हो वन की?
या तीनों से भिन्न कल्पना हो केवल कवि के मन की?
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