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|रचनाकार=केशवदास
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{{KKCatBrajBhashaRachna}}{{KKCatSavaiya}}<poem>'केसव' चौंकति सी चितवै, छिति पाँ धरके धरिकै तरकै तकि छाँहि।<br>छाँहीं।बूझिये और कहै मुख और, सु और की और भई छिन माहिं॥<br>माहीं॥डीठी दीठि लगी किधौं बाई बाइ लगी, मन भूलि पर्यो कै कर्यो कछु काहीं।<br>घूँघट की, घट की, पट की, हरि आजु कछु कछू सुधि राधिकै नाहीं॥</poem>
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