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यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है<br>थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है<br>चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से<br>चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से<br>शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग सेबाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही नहीं है<br>थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही नहीं है अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है। दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।<br/poem>