"स्तुति-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी | |रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी | ||
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+ | |संग्रह=पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी | ||
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+ | सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥ | ||
+ | कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥ | ||
+ | कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥ | ||
+ | कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥ | ||
+ | कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥ | ||
+ | कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥ | ||
+ | कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥ | ||
− | + | कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि । | |
+ | पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥ | ||
+ | कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥ | ||
+ | कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥ | ||
+ | कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥ | ||
+ | कीन्हेसि बनखँढ औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥ | ||
+ | कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उडहिं जहँ चहईं ॥ | ||
+ | कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥ | ||
+ | कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥ | ||
− | + | निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक । | |
− | + | गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥ | |
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− | + | कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥ | |
− | + | कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥ | |
+ | कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥ | ||
+ | कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥ | ||
+ | कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥ | ||
+ | कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥ | ||
+ | कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥ | ||
− | कीन्हेसि | + | कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि । |
− | + | भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥ | |
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− | + | कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बडाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥ | |
− | + | कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥ | |
+ | कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥ | ||
+ | कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥ | ||
+ | कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥ | ||
+ | कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥ | ||
− | कीन्हेसि | + | कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार । |
− | + | छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥ | |
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− | कीन्हेसि | + | |
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− | + | धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥ | |
− | भुगुति | + | जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥ |
+ | ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥ | ||
+ | पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥ | ||
+ | भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥ | ||
+ | ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥ | ||
+ | सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥ | ||
− | + | जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह । | |
− | + | और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥ | |
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− | + | आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥ | |
− | + | सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥ | |
+ | छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥ | ||
+ | परबत ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥ | ||
+ | बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥ | ||
+ | ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥ | ||
+ | काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥ | ||
− | + | सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर । | |
− | + | एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥ | |
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− | + | अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥ | |
− | और जो | + | परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥ |
+ | ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥ | ||
+ | जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥ | ||
+ | वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥ | ||
+ | हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥ | ||
+ | और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥ | ||
− | + | जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह । | |
− | + | बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥ | |
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− | + | एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥ | |
− | + | जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥ | |
+ | जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥ | ||
+ | स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥ | ||
+ | नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥ | ||
+ | है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥ | ||
+ | ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥ | ||
− | + | ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि । | |
− | + | दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥ | |
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− | जो | + | और जो दीन्हेसि रतन अमोला । ताकर मरम न जानै भोला ॥ |
− | + | दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥ | |
+ | दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥ | ||
+ | दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥ | ||
+ | दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥ | ||
+ | जोबन मरम जान पै बूढा । मिला न तरुनापा जग ढूँढाँ ॥ | ||
+ | दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥ | ||
− | + | काया-मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत । | |
− | + | सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥ | |
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− | + | अति अपार करता कर करना । बरनि न कोई पावै बरना ॥ | |
− | + | सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥ | |
+ | जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥ | ||
+ | जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद औ गगन तराई ॥ | ||
+ | सब लिखनी कै लिखु संसारा । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥ | ||
+ | ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥ | ||
+ | ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥ | ||
− | + | बड गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग । | |
− | + | औ अस गुनी सँवारे, जो गुन करै अनेग ॥10॥ | |
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− | + | कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥ | |
− | + | प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥ | |
+ | दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥ | ||
+ | जौ न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥ | ||
+ | दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढत सिखे ॥ | ||
+ | जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥ | ||
+ | जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥ | ||
− | + | गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख औ जोख । | |
− | + | वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥ | |
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− | + | चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥ | |
− | + | अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥ | |
+ | पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥ | ||
+ | पुनि उसमान पंडित बड गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥ | ||
+ | चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥ | ||
+ | चारिउ एक मतै, एक बाना । एक पंथ औ एक सँधाना ॥ | ||
+ | बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥ | ||
− | + | जो पुरान बिधि पठवा सोई पढत गरंथ । | |
− | + | और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥ | |
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− | + | सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥ | |
− | + | ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥ | |
+ | जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥ | ||
+ | सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥ | ||
+ | तह लगि राज खडग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥ | ||
+ | हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥ | ||
+ | औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥ | ||
− | + | दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज । | |
− | + | बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥ | |
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− | + | बरनौं सूर भूमिपति राजा । भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥ | |
− | + | हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उडहिं होइ धूरी ॥ | |
+ | रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥ | ||
+ | भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥ | ||
+ | डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥ | ||
+ | मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥ | ||
+ | अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥ | ||
− | + | जो गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर । | |
− | + | जब वह चढै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥ | |
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− | + | अदल कहौं पुहुमी जस होई । चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥ | |
− | + | नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥ | |
+ | अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥ | ||
+ | परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥ | ||
+ | गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥ | ||
+ | नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥ | ||
+ | धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥ | ||
− | + | सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ । | |
− | + | गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥ | |
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− | जो | + | पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥ |
− | + | ससि चौदसि जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥ | |
+ | पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥ | ||
+ | जैस भानु जग ऊपर तपा । सबै रूप ओहि आगे छपा ॥ | ||
+ | अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥ | ||
+ | सौंह दीठि कै हेरि न जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥ | ||
+ | रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा ॥ | ||
− | + | रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढि । | |
− | + | मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥ | |
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− | + | पुनि दातार दई जग कीन्हा । अस जग दान न काहू दीन्हा ॥ | |
− | + | बलि विक्रम दानी बड कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥ | |
+ | सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥ | ||
+ | दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥ | ||
+ | कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥ | ||
+ | जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥ | ||
+ | दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥ | ||
− | + | ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान । | |
− | + | ना अस भयउ न होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥ | |
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− | अस | + | |
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− | + | सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥ | |
− | + | लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥ | |
+ | मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥ | ||
+ | खार समुद्र पाप मोर मेला । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥ | ||
+ | उन्ह मोर कर बूडत कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥ | ||
+ | जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥ | ||
+ | दस्तगीर गाढे कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥ | ||
− | + | जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद । | |
− | + | वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥ | |
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− | + | ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥ | |
− | + | तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥ | |
+ | सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥ | ||
+ | दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥ | ||
+ | दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥ | ||
+ | दुहुँ खंभ टेके सब महीं । दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥ | ||
+ | जेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, निरमल भइ काया ॥ | ||
− | + | मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर । | |
− | + | जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥ | |
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− | + | गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥ | |
− | + | अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥ | |
− | + | अहलदाद भल तेहि कर गुरू । दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥ | |
− | + | सैयद मुहमद कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला ॥ | |
− | + | दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥ | |
− | + | भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥ | |
− | + | ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥ | |
− | + | वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर । | |
− | + | उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥ | |
+ | एक नयन कबि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥ | ||
+ | चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥ | ||
+ | जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥ | ||
+ | जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥ | ||
+ | कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥ | ||
+ | जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥ | ||
+ | जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥ | ||
− | + | एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ । | |
− | + | सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥ | |
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− | वै | + | चारि मीन कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥ |
− | + | युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥ | |
+ | पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥ | ||
+ | मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खडग जुझारू ॥ | ||
+ | सेख बडे, बड सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड माना । | ||
+ | चारिउ चतुरदसा गुन पढे । औ संजोग गोसाईं गढे ॥ | ||
+ | बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥ | ||
− | + | मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त । | |
− | + | एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त ?॥22॥ | |
− | जग | + | |
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− | + | जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥ | |
− | + | औ बिनती पँडितन सन भजा । टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥ | |
+ | हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥ | ||
+ | हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥ | ||
+ | रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥ | ||
+ | जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?॥ | ||
+ | फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥ | ||
− | + | मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु । | |
− | + | जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥ | |
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− | + | सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥ | |
− | + | सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ आनी ॥ | |
+ | अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥ | ||
+ | सुना साहि गढ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥ | ||
+ | आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥ | ||
+ | कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥ | ||
+ | नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड चाँटा ॥ | ||
− | + | भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास । | |
− | + | दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥ | |
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+ | (1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त, स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है । | ||
+ | (2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज | ||
+ | (3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा । चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार) | ||
(4)भूँजहिं=भोगते हैं । बरियार=बलवान । | (4)भूँजहिं=भोगते हैं । बरियार=बलवान । | ||
− | |||
(5) उपाई=उत्पन्न की । आस हर=निराश । | (5) उपाई=उत्पन्न की । आस हर=निराश । | ||
− | |||
(6) भाँजै=भंजन करता है, नष्ट करता है । | (6) भाँजै=भंजन करता है, नष्ट करता है । | ||
− | |||
(7) सिरजना=रचना । | (7) सिरजना=रचना । | ||
− | |||
(8) बेहरा=अलग (बिहरना=फटना)। | (8) बेहरा=अलग (बिहरना=फटना)। | ||
− | + | (11) पूनौ करा=पूर्निमा की कला । प्रथम....उपराजी=कुरान में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती । जगत-बसीठ=संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला , पैगंबर । लेख जोख=कर्मों का हिसाब । दुसरे ठाँव....वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् अपने से दूसरा दरजा दिया । पाढत = पढंत, मंत्र, आयत । (12) सिदिक = सच्चा । दीन =धर्म, मत । बाना = रीति ,ढंग । संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य | |
− | (11) पूनौ करा=पूर्निमा की कला । प्रथम....उपराजी=कुरान | + | (13) छात = छत्र । पाट = सिंहासन । सूर =शेरशाह सूर जाति का पठान था । जुलकरन = जुलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधि काँदौ = कर्दम, कीचड । |
− | में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न | + | (15) अहा = था । भई अहा = वाह वाह हुई । नाथ = नाक में पहनने की नथ । पारा = सकता है । निनारा = अलग 2(निर्णय)। |
− | होती । जगत-बसीठ=संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला , पैगंबर । लेख जोख=कर्मों का | + | (16)मुख चाहा = मुँह देखता है। आगर =अग्र, बढकर । चाहि = अपेक्षाकृत (बढकर) । करा = कला। ससि चौदसि=पूर्णिमा (मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन की चौदहवीं तिथि पडती है ।) |
− | हिसाब । | + | (17) डाँक = डंका । सौंह न दीन्हा = सामना न किया । |
− | दुसरे ठाँव....वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् | + | (18) लेसा =जलाया । कंधार = कर्णधार, केवट । हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया । अँजोर = उजाला । खिखिंद = किष्किंध पर्वत । |
− | अपने से दूसरा दरजा दिया । पाढत = पढंत, मंत्र, आयत । | + | |
− | (12) सिदिक = सच्चा । दीन =धर्म, मत । बाना = रीति ,ढंग । संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य | + | |
− | + | ||
− | (13) छात = छत्र । पाट = सिंहासन । सूर =शेरशाह सूर जाति का पठान था । | + | |
− | जुलकरन = जुलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधि | + | |
− | काँदौ = कर्दम, कीचड । | + | |
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− | (15) अहा = था । भई अहा = वाह वाह हुई । नाथ = नाक में | + | |
− | पहनने की नथ । पारा = सकता है । निनारा = अलग 2(निर्णय)। | + | |
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− | (16)मुख चाहा = मुँह देखता | + | |
− | है। आगर =अग्र, बढकर । चाहि = अपेक्षाकृत (बढकर) । करा = कला। ससि चौदसि=पूर्णिमा | + | |
− | (मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन | + | |
− | की चौदहवीं तिथि पडती है ।) | + | |
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− | (17) डाँक = डंका । सौंह न दीन्हा = सामना न किया । | + | |
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− | (18) लेसा =जलाया । | + | |
− | कंधार = कर्णधार, केवट । हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया । | + | |
− | अँजोर = उजाला । खिखिंद = किष्किंध पर्वत । | + | |
− | + | ||
(19) खेवक = खेनेवाला, मल्लाह । | (19) खेवक = खेनेवाला, मल्लाह । | ||
− | + | (20) खेवा = नाव का बोझ । सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले । उताइल = जल्दी । मेरइ लिये = मिला लिया । सैयद राजे = सैयद राजे हामिदशाह । उन्ह हुत = उनके द्वारा । | |
− | (20) खेवा = नाव का बोझ । सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले । उताइल = | + | (21) नयनाहाँ = नयन से, आँख से । डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप ।चोपी । |
− | जल्दी । मेरइ लिये = मिला लिया । सैयद राजे = सैयद राजे हामिदशाह । उन्ह हुत = उनके द्वारा । | + | (22) मतिमाहाँ = मतिमान् । उभै = उठती है । जुझारू = योद्धा । चतुरदसा गुन = चौदह विद्याएँ । |
− | + | (23) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल । डगा = डुग्गी बजाने की लकडी । तारु = (क) तालू । (ख) ताला कूँजी = कुँजी । फेरे भेष = वेष बदलते हुए । तपा = तपस्वी । | |
− | (21) नयनाहाँ = नयन से, आँख से । डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप ।चोपी । | + | (24) आछै = है । जैसे - कह कबीर कछु अछिलो न जहिया ।</poem> |
− | + | ||
− | (22) मतिमाहाँ = मतिमान् । उभै = उठती है । जुझारू = योद्धा । चतुरदसा गुन = | + | |
− | चौदह विद्याएँ । | + | |
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− | (23) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल । डगा = डुग्गी बजाने की | + | |
− | लकडी । तारु = (क) तालू । (ख) ताला कूँजी = कुँजी । फेरे भेष = वेष बदलते हुए । | + | |
− | तपा = तपस्वी । | + | |
− | + | ||
− | (24) आछै = है । जैसे - कह कबीर कछु अछिलो न जहिया । | + |
16:39, 27 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण
सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥
कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥
कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥
कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥
कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥
कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥
कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥
कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि ।
पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥
कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥
कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥
कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥
कीन्हेसि बनखँढ औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥
कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उडहिं जहँ चहईं ॥
कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥
कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥
निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक ।
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥
कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥
कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥
कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥
कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥
कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥
कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥
कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥
कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि ।
भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥
कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बडाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥
कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥
कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥
कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार ।
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥
धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥
जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥
ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥
पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥
ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥
सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥
जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह ।
और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥
आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥
सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥
छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥
परबत ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥
बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥
ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥
काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥
सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर ।
एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥
अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥
परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥
ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥
जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥
हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥
और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥
जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह ।
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥
एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥
जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥
स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥
है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥
ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि ।
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥
और जो दीन्हेसि रतन अमोला । ताकर मरम न जानै भोला ॥
दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥
दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥
दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥
जोबन मरम जान पै बूढा । मिला न तरुनापा जग ढूँढाँ ॥
दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥
काया-मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत ।
सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥
अति अपार करता कर करना । बरनि न कोई पावै बरना ॥
सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥
जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥
जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद औ गगन तराई ॥
सब लिखनी कै लिखु संसारा । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥
ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥
ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥
बड गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग ।
औ अस गुनी सँवारे, जो गुन करै अनेग ॥10॥
कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥
प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥
दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥
जौ न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥
दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढत सिखे ॥
जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥
जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥
गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख औ जोख ।
वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥
चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥
अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥
पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥
पुनि उसमान पंडित बड गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥
चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥
चारिउ एक मतै, एक बाना । एक पंथ औ एक सँधाना ॥
बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥
जो पुरान बिधि पठवा सोई पढत गरंथ ।
और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥
सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥
ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥
जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥
सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥
तह लगि राज खडग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥
हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥
औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥
दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज ।
बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥
बरनौं सूर भूमिपति राजा । भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥
हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उडहिं होइ धूरी ॥
रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥
भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥
डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥
मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥
अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥
जो गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर ।
जब वह चढै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥
अदल कहौं पुहुमी जस होई । चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥
नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥
अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥
परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥
गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥
नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥
धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥
सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ ।
गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥
पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥
ससि चौदसि जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥
पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥
जैस भानु जग ऊपर तपा । सबै रूप ओहि आगे छपा ॥
अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥
सौंह दीठि कै हेरि न जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥
रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा ॥
रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढि ।
मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥
पुनि दातार दई जग कीन्हा । अस जग दान न काहू दीन्हा ॥
बलि विक्रम दानी बड कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥
सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥
दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥
कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥
जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥
दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥
ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान ।
ना अस भयउ न होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥
सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥
लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥
मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥
खार समुद्र पाप मोर मेला । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥
उन्ह मोर कर बूडत कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥
जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥
दस्तगीर गाढे कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥
जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद ।
वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥
ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥
सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥
दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥
दुहुँ खंभ टेके सब महीं । दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥
जेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, निरमल भइ काया ॥
मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर ।
जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥
गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥
अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥
अहलदाद भल तेहि कर गुरू । दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥
सैयद मुहमद कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला ॥
दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥
भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥
ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥
वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर ।
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥
एक नयन कबि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥
चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥
जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥
जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥
जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥
जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥
एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ ।
सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥
चारि मीन कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥
युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥
पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥
मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खडग जुझारू ॥
सेख बडे, बड सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड माना ।
चारिउ चतुरदसा गुन पढे । औ संजोग गोसाईं गढे ॥
बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥
मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त ।
एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त ?॥22॥
जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥
औ बिनती पँडितन सन भजा । टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥
हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥
हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥
रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥
जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?॥
फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥
मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु ।
जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥
सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥
सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ आनी ॥
अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥
सुना साहि गढ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥
आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥
कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥
नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड चाँटा ॥
भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥
(1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त, स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है ।
(2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज
(3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा । चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार)
(4)भूँजहिं=भोगते हैं । बरियार=बलवान ।
(5) उपाई=उत्पन्न की । आस हर=निराश ।
(6) भाँजै=भंजन करता है, नष्ट करता है ।
(7) सिरजना=रचना ।
(8) बेहरा=अलग (बिहरना=फटना)।
(11) पूनौ करा=पूर्निमा की कला । प्रथम....उपराजी=कुरान में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती । जगत-बसीठ=संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला , पैगंबर । लेख जोख=कर्मों का हिसाब । दुसरे ठाँव....वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् अपने से दूसरा दरजा दिया । पाढत = पढंत, मंत्र, आयत । (12) सिदिक = सच्चा । दीन =धर्म, मत । बाना = रीति ,ढंग । संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य
(13) छात = छत्र । पाट = सिंहासन । सूर =शेरशाह सूर जाति का पठान था । जुलकरन = जुलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधि काँदौ = कर्दम, कीचड ।
(15) अहा = था । भई अहा = वाह वाह हुई । नाथ = नाक में पहनने की नथ । पारा = सकता है । निनारा = अलग 2(निर्णय)।
(16)मुख चाहा = मुँह देखता है। आगर =अग्र, बढकर । चाहि = अपेक्षाकृत (बढकर) । करा = कला। ससि चौदसि=पूर्णिमा (मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन की चौदहवीं तिथि पडती है ।)
(17) डाँक = डंका । सौंह न दीन्हा = सामना न किया ।
(18) लेसा =जलाया । कंधार = कर्णधार, केवट । हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया । अँजोर = उजाला । खिखिंद = किष्किंध पर्वत ।
(19) खेवक = खेनेवाला, मल्लाह ।
(20) खेवा = नाव का बोझ । सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले । उताइल = जल्दी । मेरइ लिये = मिला लिया । सैयद राजे = सैयद राजे हामिदशाह । उन्ह हुत = उनके द्वारा ।
(21) नयनाहाँ = नयन से, आँख से । डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप ।चोपी ।
(22) मतिमाहाँ = मतिमान् । उभै = उठती है । जुझारू = योद्धा । चतुरदसा गुन = चौदह विद्याएँ ।
(23) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल । डगा = डुग्गी बजाने की लकडी । तारु = (क) तालू । (ख) ताला कूँजी = कुँजी । फेरे भेष = वेष बदलते हुए । तपा = तपस्वी ।
(24) आछै = है । जैसे - कह कबीर कछु अछिलो न जहिया ।