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Kavita Kosh से
प्रूफ़रीड किया है
मैं प्यार को जगाता हूँ
खोल सब मुँदे मुंदे द्वार
इस अगुरु-धूम-गन्ध-रुँधे रुंधे सोने के घर के
हर कोने को
सुनहली खुली धूप में निल्हाता हूँ ।हूँ।
तुम जो मेरी हो, मुझ में हो,
::::अन्तरीक्ष से,
निर्व्यास तेजस् के निर्गंभीर निर्गभीर शून्य आकर से
मैं, समाहित अन्तःपूत,
ओ अभिन्न प्यार
ओ धनी !
आज फिर एक बार
तुम को बुलाता हूँ--हूँ—
और जो मैं हूँ, जो जाना-पहचाना,
धन है, संचय है, उस की एक-एक कली को
::न्योछावर लुटाता हूँ ।हूँ।
जिस निर्व्यास उजाले को
सतत झलकाया है--है—
उस में जो छाया मैंने पहचानी है
::तुम्हारी है ।है।
नीचे छिपे शैवाल को सुनहला चमकाया है,
निश्चल निस्तल गहराइयों में जो निश्छल उल्लास झलकाया है,
उस में निर्वाक् मैंने
::तुम्हें पाया है ।है।
रात की सिहरती पत्तियों से
अनमनी झरती वारि-बँदेबूंदे
जिसे टेरती हैं,
फूलों की पीली पियालियाँ
जिस की ही मुस्कान छलकती छलकाती हैं,
ओट मिट्टी की, असंख्य रसातुरा शिराएँ
निदाघ तपाता है,
वर्षा जिसे धोती है, शरद सँजोता संजोता है,
अगहन पकाता और फागुन लहराता
और चैत काट, बाँधबांध, रौंद, भर कर ले जाता है--है—
नैसर्गिक चंक्रमण सारा--सारा—
पर दूर क्यों,
मैं ही जो साँस लेता हूँ
जो हवा पीता हूँ--हूँ—
उस में हर बार, हर बार,
अविराम, अक्लान्त, अनाप्यायित
::तुम्हें जीता हूँ ।हूँ।
हँसियाँ
झरनों में
प्रतिश्रुत होती है ।है।
पंछी ऊँऽऽची
भरते हैं उड़ान--उड़ान—
आशाओं का इन्द्र-चाप
दोनों छोर नभ के
::मिताता है ।मिलाता है।
मुझ में पर--मुझ में--मुझ में--पर—मुझ में—मुझ में—
मेरे हर गीत में, मेरी हर ज्ञप्ति में--में—
कुछ है जो काँटे सा कसकाता,
अंगारे सुलगाता है--है—
मेरे हर स्पन्दन में, साँस में, समाई में
विरह की आप्त व्यथा
तुम्हारे रंग रंगना है ।है।
मैंने तुम्हें देखा है
असंख्य बार :
मेरी इन आँखों में बसी हुई है
छाया उस अनवद्य रूप की ।की।
मेरे नासापुटों में तुम्हारी गन्ध--गन्ध—
मैं स्यवं स्वयं उस से सुवासित हूँ ।हूँ।
मेरे स्तब्ध मानस में गीत की लहर-सा
छाया है तुम्हारा स्वर ।स्वर।
और रसास्वाद : मेरी स्मृति में अभिभूत है ।है।
मैंने तुम्हें छुआ है
मेरी मुट्ठियों में भरी हुई तुम
मेरी ऊंगलियों उंगलियों बीच छन कर बही हो--हो—
कण प्रतिकण आप्त, स्पृष्ट, भुक्त ।भुक्त।
मैंने तुम्हें चूमा है
और हर चुम्बन की तप्त, लाल, अयस्कठोर छाप
मेरा हर रक्त-कण धारे है ।है।
नहीं ! मैंने तुम्हें केवल मात्र जाना है ।है।
देखा नहीं मैंने कभी,
सुना नहीं, छुआ नहीं,
किया नहीं रसास्वाद--रसास्वाद—
ओ स्वतःप्रमाण ! मैंने
तुम्हें जाना,
केवल मात्र जाना है ।है।
दीठ रही ओछी, क्योंकि तुम समग्र एक विश्व हो
छू सका नहीं :
अधूरा रहा स्पर्श क्योंकि तुम तरल हो, वायवी हो
पहचान सका नहीं : तुम
मायाविनि, कामरूपा हो ।हो।
किन्तु, हाँ, पकड़ सका--सका—
पकड़ सका, भोग सका
बलिष्ठ;
एक जाल निर्वारणीय :
अनुभूति से तो
कभी, कहीं, कुछ नहीं
जीवनानुभूति : एक पंजा कि जिस में
तुम्हारे साथ मैं भी तो पकड़ में
आ गया हूँ !
एक जाल, जिस में
तुम्हारे साथ मैं भी बंध गया हूँ ।हूँ।
जीवनानुभूति :
एक चक्की । चक्की। एक कोल्हू ।कोल्हू।
समय कि अजस्त्र अजस्र धार का घुमाया हुआ
पर्वती घराट् एक अविराम ।अविराम।
एक भट्ठी, एक आवाँ स्वतःतप्त :
तुम्हें जाना है, अप्रमाद तुम्हें जपा है,
तुम्हें स्मरा है ।है।
और मैंने देखा है--है—
और मेरी स्मृति ने
मेरी देखी सारी रूप-राशि को इकाई दी है ।है।
मैंने सुना है--है—
और मेरी अविकल्प स्मृति ने
सभी स्वर एक मूर्छना में गूँथ डाले हैं ।हैं।
विकीर्ण सब गन्धों को
चयित कर दिया एक वृन्त में एक ही वसन्त के ।के।
और मेरे ज्ञान ने असंख्य माया-मूर्तियों के
जो-मात्र मेरी पहचानी है
जिसे-मात्र मैंने चाहा है ।है।
और, ओ आस्वाद्य मेरी !
ले गयी है प्रत्यभिज्ञा मुझे उत्स तक
जिस की पीयूषवर्षी, अनवद्य, अद्वितिय धार
मुझे आप्यायित करती है ।है।
पहचानता हूँ, सांगोपांग;
ओर भूलता नहीं हूँ--कभी हूँ—कभी भूल नहीं सकता !
भूलता नहीं हूँ
कभी भूल नहीं सकता
और मैं बिखरना नहीं चाहता ।चाहता।
आज, मन्त्राहूत ओ प्रियस्व मेरी !
मुझ को जो कहना है, वह इस धधकते क्षण में
जलती है मेरी इस आविष्ट जिह्वा पर,
तब तक--मैं तक—मैं कह लूँ :
::मेरे ही दाह का हुताश्न हो साक्षी मेरा !
ओ आहूत !
ओ प्रत्यक्ष !
अप्रतिम !
ओ स्वयंप्रतिष्ठ !
सुनो संकल्प मेरा :
मैं विजेता हूँ और मुझे जीत लिया गया है;
मैं हूँ, और मैं दे दिया गया हूँ;
मैं जिया हूँ, और मेरे भीतर से जी लिया गया है;
मैं अवतरित हुआ हूँ, मैं आत्मसात् हूँ,
अमर्त्य, कालजित् हूँ ।हूँ।
दिक्-प्रबुद्ध,
इसी बल
वह ठाँव छोड़ दी;
ममता ने तरिणी को तीर-ओर मोड़ा--मोड़ा—
वह डोर मैंने तोड़ दी ।दी।
हर लीक पोंछी, हर डगर मिटा दी, हर दीप
अपनी धमनी
जिस के हम किनारे हैं क्योंकि जिसे हमने
पार कर लिया है ।है।
हमीं वह निर्मल तल-दर्शी वापी हैं
जिसे हम ओक-भर पीते हैं--हैं—
बार-बार, तृषा से, तृप्ति से, आमोद से, कौतुक से,
क्योंकि हमीं छिपा वह उत्स हैं जो उसे
पूरित किये किए रहता है ।है।
ओ मेरी सहधर्मा,
छू दे मेरा कर : आहुति दे दूँ--दूँ—
हमीं याजक हैं, हमीं यज्ञ,
जिसमें हुत हमीं परस्परेष्टि ।परस्परेष्टि।
ओ मेरी अतृप्त, दुःशम्य धधक, मेरी होता,
जैसे मैंने तुझे खाया है
हम परस्पराशी हैं क्योंकि परस्परपोषी हैं
:::परस्परजीवी हैं ।हैं।
सहभोक्ता,
सहजीवा, कल्याणी ।कल्याणी।
ओ तपोजात,
मेरे कोटि-कोटि लहरों से मँजे मंजे एकमात्र मोती
ओ विश्व-प्रतिम,
अब तू इस कृति सीप को अपने में समेट ले,
यह परदृश्य सोख ले ।ले।
स्वाति बूंद ! चातक को आत्मलीन तू कर ले !
ओ वरिष्ठ ! ओ वर दे ! ओ वर ले !
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